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मरणण्डिका
दोषे
स्वल्पेऽपि विहिते कृतदोषसहस्रशः । उपकारमवज्ञाय स्वं विघ्नन्ति पांत कुलम् ॥६८१ ॥ आशीविषा इव त्याज्या दूरतो नीतिहेतवः । दुष्टा नृपा इव क्रुद्धास्ताः कुर्यन्ति कुलक्षयम् ।।६८२ ॥ प्रकृतेप्यपराधे ता नीचाः स्वच्छंदवृत्तयः । निघ्नंति निर्घुणाः पुत्रं श्वशुरं पितरंपतिम् ॥६८३॥ उपकारं गुणं स्नेहं सत्कारं सुखलालनम् । न मन्यते परासक्ता मधुरं वचनं स्त्रियः ॥ ६८४|| साकेताधिपतिर्देवर तिः प्रच्याव्य राज्यतः । वेच्या नदीहृदे क्षिप्तो रक्तया पंगुरक्तया ॥ ६८५।।
कराती है किन्तु पुरुष इन महिलाओं को किसी प्रकार भी विश्वास उत्पन्न नहीं करा सकता है ।।९८० ।। खुदने हजारों बार दोष किये हों तो कोई बात नहीं किन्तु पति द्वारा थोड़ासा भी दोष हो जाय तो कुलटा नारी पतिके उपकारको अवज्ञा करके उसको मारती है खुदका और कुलका भी नाश कर डालती है ।।६८१|| हितकर यह है कि महिलायें तो आशीविष सर्पके समान दूरसे ही छोड़ने योग्य हैं, यदि ये कुपित हो जाय तो कुलका क्षय कर देती है, जैसे दुष्ट राजा लोग कुपित होनेपर कुलका क्षय कर डालते हैं ।। ६८२ ।।
स्वैराचारिणो नोच स्त्रियाँ अपराधके नहीं करनेपर भी निर्दयी होकर अपने पुत्र, पिता और पतिको मार डालती हैं ।। ९६३॥ पर पुरुषोंमें आसक्त हुई स्त्रियाँ अपने पतियोंके उपकारको, गुणको, स्नेहको सत्कारको, सुख लालनको, मिष्ट वचनको कुछ भी नहीं गिनती ( अर्थात् मेरा पति कितना उपकारक है मुझे कितने सुखमें रखता है मेरे से कितना अच्छा व्यवहार करता है इत्यादि सब ही बातोंको भूल जाती है और पतिकी अवहेलना करती है अन्य पुरुष जो कि कुछ भी लायक नहीं है दोषयुक्त बेरूप है उस पर प्रेम करने लग जाती है ) ||६८४|| अयोध्याके नरेश देवरति नामके राजाको राज्यसे च्युत कराके रक्ता नामको उसकी ही रानीने एक पंगु कुरूप दुष्ट पुरुष पर आसक्त होकर नदोके गहरे प्रवाह में डाल दिया था ।। ९८५ ॥ ।