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________________ अनुशिष्टि महाधिकाय { २८१ मान्या ये संति मरयानामक्षोभ्या अलिनामपि । सर्वत्र जगति ख्याता महांतो मंदरा इव ॥६७६॥ शठस्ते स्त्रीजनस्तीक्ष्ण म्यन्ते क्षणमात्रतः । नितांतकुटिलीभूतरंकुशंरिव वंतिमः ॥९७७॥ आसन्रामायणादोनि स्त्रीम्यो पुखान्यनेकशः । मलिनाभ्योऽवमालाभ्यः सलिलानोव विष्टपे ॥६७८॥ थिधभसंस्तवस्नोहा जातु संति न योषितः । त्यजन्ति वा परासक्ताः कुलं तृणमिव द्रुतम् ।।९७६॥ वित्र भयन्ति ता मत्यं प्रकारविविधलंघु । वित्र भः शक्यते कर्तु मेतासां न कथंचन ॥६॥ - -- भावार्थ-वृक्ष ऊंचा है किन्तु उसके पास नसैनी होवे तो छोटा कदवाला आदमी भी उसपर चढ़ जाता है वैसे पुरुष बलवान और उच्च कुलोन है किन्तु उसकी स्त्री यदि कुशीला है तो उसकी अवहेलना नीच भी करने लग जाता है। अर्थात् दुराचारिणी स्त्रीके पतिकी लोग हँसी करते हैं अपमान करते हैं । इस संसारमें मनुष्योंमें जो मान्य हैं, बलवान् पुरुष द्वारा भी जो क्षोभित नहीं होते, जगत में सब जगह प्रसिद्ध हैं महान् सुमेरु पर्वतके समान हैं। ऐसे महापुरुष भी मूर्ख तथा कठोर स्त्रियों द्वारा क्षण मात्र में निम्नकोटिके किये जाते हैं अर्थात् उनकी पूजा, आदर आदि क्षणभरमें नष्ट किये जाते हैं, जैसे अतिशय कुटिल अंकुश द्वारा हाथी झुकाये जाते हैं नम्र किये जाते हैं ।।९७६।१९७७।। इस जगत में स्त्रियोंके हेतु ही रामायण आदिके महायुद्ध अनेकों बार हुए थे । जैसे कालो मेघमालाओंसे जल निसृत होता है ।।१७८।। स्त्रियों में विश्वास, प्रशंसा और स्नेहगुण कभी भी नहीं होते । कामात पराये पुरुषोंमें आसक्त नारी तृण के समान अपने कुलको गिनकर शीघ्र ही छोड़ देती है। अर्थात् पर-पुरुषमें आसक्त हुई स्त्री अपने कुल को तिनके बराबर भी नहीं गिनती ।।९७९।। ये महिलायें विविध हाव-भाव छल कपट प्रयोगोंसे शीघ्र ही पुरुषको विश्वास उत्पन्न
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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