________________
२८०]
मरणकण्डिका
छंद-वंशस्थनरो विरागो बुधव दवंदितो जिनेंद्रवद्ध्वस्त समस्त कल्मषः । विवामानं ज्वलता विवानिशं स्मराग्निना लोकमवेक्षसेऽखिलम् ।।६७३।। जननी जनकं कांतं तनयं सहवासिनं । पातयंति नितंबिन्यः कामार्ता दुःखसागरे ।।६७४।। स्त्रीनिःश्रेण्योन्नतस्यापि दुरारोहस्य लीलया । भस्तकं नरवक्षस्य नीचोऽप्यारोहति दूतम् ।।७।।
---
भावार्थ-जैसे कोई पथिक मार्ग में आनेवाली नदीके किनारेपर विश्राम कर वहांके फलोंका भक्षण कर नदीका मिष्ट जल पीकर सुखपूर्वक अपने इष्ट नगरको चला जाता है, वैसेही कामी पुरुष कामरूप मार्गसे स्त्रीरूपी नदीके नितंबरूपी किनारे पर कूचरूपी फलोंको खाकर मुखका जल पीता हुआ नरकमें चला जाता है अर्थात् स्त्रीका सेवन करनेवाला नरकगतिमें जाता है ।
जो पुरुष विरागसंपन्न है अर्थात् स्त्रीमें राग नहीं करता है-वह ज्ञानी पुरुषों द्वारा बंदित होता है, जिनेन्द्र देवके समान समस्त पापोंका नाश करनेवाला होता है अर्थात् वह विरागी क्रमशः अणुव्रत महाव्रत ग्रहणकर जिनेन्द्र बन जाता है, अब वह केवलज्ञानी (अथवा श्रुतज्ञानी) कामरूपी अग्निसे दिनरात अतिशय रूपसे जलते हुए अखिल लोकको देखता है ।।९७३।।
कामदोष वर्णन समाप्त। कामसे पीडित हई नारी अपने माता, पिता, पति, पुत्र और कटब परिवारको ६ःख सागर में डाल देती है । भाव यह है कि कामांध स्त्री अपने इष्ट यारको पाने के लिये पति माता आदिको कष्ट में डाल देती है यदि उसे ऐसे गलत कार्य के लिये मना किया जाय तो मानती नहीं । उसके स्वेराचारसे अपकीत्ति होने के कारण पति पिता परिवार दुःखो होने लगता है ।।९७४।।
स्त्री रूपी नसनी जिसमें है जो उन्नत है और कठिनाईसे चढ़ा जाता है ऐसे पुरुष रूपी वृक्षके मस्तक पर नीच व्यक्ति भी शीघ्रतासे चढ़ जाता है ॥१७॥