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________________ अनुधिषि महाविक र [ २८६ पाषाणोऽपि तरेत्तोये न बहेवपि पावकः । न चित्तं पुरुष स्त्रीणां प्रांजलं जातु जायते ॥१००८।। प्रांजलत्वं बिना स्त्रीषु विस्र भो जायते कथम् । विस्र मेण विना तासु जायते कीरशी रतिः ॥१००६।। बाहुभ्यां जलधेः पार ती| याति परं ध्र बम् । न मायाजलधेः स्त्रीणां बहुविभ्रमधारिणः ॥१०१०।। सव्याने व गुहा रत्नबहुभेदेविराजते । रमणीया सघोषा च जायते महिला सदा ।।१०१।। न दृष्टमयि सद्भावं कधीः प्रतिपद्यते । गोधान्तद्धि विधत्ते सा पुरुष कुलपुज्यपि ॥१०१२॥ कदाचित् जल में पाषाण तैरने लग जाय, अग्नि किसीको न जलावे ऐसा संभव है किन्तु पुरुषपर स्त्रियोंका चित्त सरल भावरूप नहीं हो सकता ।।१००८।। जब स्त्रियों में सरलता नहीं है तो उनमें विश्वास किसप्रकार कर सकते हैं ? और विश्वासके बिना उन स्त्रियोंमें रति किस तरह हो सकती है ? ।।१००९।। कदाचित् दोनों बाहु द्वारा तैरकर सागरका किनारा पा सकते हैं किन्तु स्त्रियोंके बहुत से विभ्रमरूपी भंवरवाले मायारूपो सागरका किनारा पाना नियमसे शक्य नहीं है ।।१०१०॥ जिसप्रकार कोई गुफा बहुत प्रकारके रत्नोंसे शोभायमान है किन्तु सिंह व्यान युक्त है, उसप्रकार महिला सुंदर और दोषयुक्त है ।।१०११॥ भावार्थ-पर्वतकी गुफा रत्नोंसे मनोहर लगती है, किन्तु उसके भीतर सिंहादि क्रूर जन्तु होनेसे भयावह होती है, वैसे स्त्री सुदर रूपवाली है किन्तु मनमें कुटिलता वासना, छल, ईर्षा आदि दोष भरे होनेसे भयावह है । कुटिल बुद्धिवाली स्त्री कुलवान् हो तो भी किसीके द्वारा दोषके देखने पर भी उस दोषको स्वीकार नहीं करती, जैसे गोह नामका जानवर किसी स्थान पर चिपक जानेपर उसे छोड़ता नहीं, वैसे स्त्री पुरुषके द्वारा उसका दोष बतानेपर भी उस दोषको न स्वीकार करती है और न छोड़ती है ।। १०१२।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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