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________________ प्रवीचार भक्त त्याग इंगिनी प्रायोपगमनाधिकार उक्तो भक्तप्रतिज्ञाया विस्तारो यत्र कश्चन । इंगिनीमरणे यथायोम् शिबुगा १२०२१ प्रवज्याग्रहणे योग्यो योग्यं लिंगमधिष्ठितः। कृतप्रवचनाभ्यासो बिनयस्थः समाहितः ॥२१०३॥ निष्पाद्य सकलं संघ इंगिनीगतमानसः । त्रितिस्थो भावितस्वान्तः कृतसल्लेखनाविधिः ॥२१०४॥ संस्थाप्य गणिनं संघे क्षमयित्वा त्रिधाखिलं । यावज्जोवं वियोगार्थी दत्वाशिक्षा प्रियकराम्।। २१०५।। किया गया । अब आगे इंगिनी मरणका वर्णन करूंगा। कैसा है इंगिनी मरण ? जन्मरूप वनको नष्ट करनेके लिये-काटने के लिये कुठारके समान है ।।२१०१॥ भक्त प्रतिज्ञा मरणमें जो कोई आराधनाको विधि कही है वह इस इंगिनी मरण में भी यथायोग्य जाननी चाहिये ।।२१०२।। इंगिनी मरणके स्वामी कौन हैं सो बताते हैं __जो व्यक्ति जिनदीक्षाके योग्य है और योग्य साधुवेषको (दिगंबर मुनिमुद्राको) जिसने धारण किया है, जिसने जैन आगमका भली प्रकारसे अभ्यास किया है, विनयो और शांत है, दीक्षाके अनंतर जिसने अपने संघ को रत्नत्रयकी साधनामें निष्पन्न किया है, इंगिनी मरणको प्राप्त करने की जिसको इच्छा है, परिणामोंको निर्मलताकी श्रेणिमें जो स्थित है अर्थात आगे आगे अधिक अधिक विशुद्ध परिणामोंमें स्थित है तपोभावना,श्रुतभावना आदि श्रेष्ठ भावनासे भावित है मन : जिसका एवं काय तथा कषायको जिसने कृश किया है ऐसे विशिष्ट मुनिराज-आचार्य संघमें अपने स्थानपर अन्य योग्य शिष्यको आचार्य पद पर स्थापित करके समस्त संघसे मन वचन, काय द्वारा क्षमा याचना करके कराके यावज्जीवनके लिये संघका त्याग करते समय संघको अत्यंत हितकारी प्रियकारी उत्तम शिक्षा-उपदेश देते हैं । और इसप्रकार संघ आदिके प्रति अपना कर्तव्य पूर्ण करनेसे जो कृतकृत्यताका अनुभव कर रहे हैं इससे तथा समाधि प्राप्तिको उत्सुकतासे जिन्हें अत्यंत हर्ष हो रहा है ऐसे गुण और शोलोंसे मंडित प्राचार्य संघसे बाहर निकलते हैं । संघसे निकलकर वे
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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