SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 654
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका कृतार्थता समापनो हर्षाकुलिसमानसः । निर्यातो गणतः सरिर्गुणशीलनिभूषितः ॥२१०६॥ निःक्रम्य स्थंडिलादौ स विविक्त बहिरंतरे । भूशिलासंस्तरस्थायी स्वं निर्यापयति स्वयम् ॥२१०७।। योग्यं पू@वित्तं कृत्वा संस्तरं स्थंडिले तृणः । पूर्वस्यामुत्तरस्यां वा शिरो विशि करोति सः ॥२१०८॥ भावशुद्धिमधिष्ठाय लेण्याशुद्धिविद्धितः । कर्मविध्वंसनाकांक्षी मूर्धन्यस्तकरद्वयः ॥२१०६॥ विधायालोचनामग्रे जिनादीनामदूषणाम् । दर्शनज्ञानचारित्रतपसां कृतशोधनः ॥२११०।। यावज्जोवं विधाहारं प्रत्याख्याय चतुर्विधं । बाह्यमाभ्यंतरं ग्रंथमपाकृत्य विशेषतः ।।२१११॥ आचार्य एकान्तमें बाहर भीतरमें जो प्रासुक है ऐसे स्थंडिल आदि स्थानमें पहुंचते हैं, वहां भूमिरूप या शिलारूप संस्तरमें स्वयंको आरोपित करते हैं अर्थात् अन्यकी सहायता से रहित एकाको शरीरमात्र है सहायक जिनका ऐसे वे योगीराज भूमि आदिका आश्रय लेते हैं। पहले भक्त प्रत्याख्यान मरणमें संस्तरका जैसे विधान बताया था वैसे नगर आदिसे याचना करके तृणादिको लाकर उनसे अपने शरीर प्रमाण संस्तर बनाकर पूर्व या उत्तर दिशामें शिर करते हैं [अर्थात् जब जब संस्तर में शयन करते हैं तब तब उक्त दिशामें शिर करते हैं ।।२१०३।।२१०४।।२१०५।।२१०६।२१०७॥२१०८।। इंगिनी मरण के इच्छुक वे मुनिराज अपने भावोंकी शुद्धि करते हैं एवं लेश्या को विशुद्धि-पीत पद्म और शुक्ल लेश्यारूप विशुद्धिको बढ़ाते हैं, कर्मों के नाशकी इच्छाबाले वे मुनिराज दोनों हाथों को जोड़कर मस्तकपर रखते हैं और जिनेन्द्र आदिके समक्ष अपने सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप संबंधो अतोचारोंको निर्दोष आलोचना करके अपने अपराधोंका शोधन करते हैं ॥२१०९॥२११०।। वे मुनिराज मन, वचन, कायसे
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy