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________________ अवीचार भक्त त्याग इंगिनी प्रायोपगमनाधिकार परिषहोपसर्गाणां कुर्वाणो निर्जयं परम् । माहमानः परो शुद्धि धर्मध्यानपरायणः ।। २११२ ।। निषद्योत्थाय निःशेषामात्मनः कुरुते क्रियाम् । विहरन्नुपसर्गेऽसौ प्रसाराकुंचनादिकम् ॥२११३॥ स्वयमेवात्मनः सर्वं प्रतिकर्म करोति सः । श्राकांक्षति महासत्त्वः परतोऽनुग्रहं न हि ॥२११४॥ संपन्नमतिदारुणम् 1 देवमानवतिर्यग्भ्यः उपसर्ग महासत्वः सहतेऽसौ निराकुलः ॥२११५ ।। दुःशील भूतबेताल शाकिनीप्रहराक्षसः 1 न संभीषयितुं शक्यो भोरपि कथंचन ।।२११६ ।। त्रिवर्शन क्रियावद्भिश्चेतश्चोरणकारिणों I प्रदर्श्य महतोमृद्धि लोभ्यमानो न लुभ्यति ।।२११७॥ | ६१५ जीवन पर्यंतके लिये चार प्रकारके आहारका त्याग करते हैं तथा विशेषरूप से बाह्यान्तर परिग्रहका त्याग करते हैं ||२१११।। परोषह और उपसर्गो पर उत्कृष्ट विजय करते हुए परम शुद्धिको प्राप्तकर सदा धर्म्यंध्यानमें तत्पर रहते हैं ।। २११२ ॥ जिस समय उपसर्ग नहीं है उस वक्त अपनो उठने बैठने आदि संपूर्ण क्रियाको तथा शरीरको फैलाना सिकोड़ना श्रादिको स्वयं करते हैं ।। २११३ ।। इंगिनी मरण करनेवाले मुनि अपने कार्य - शीच हाथपैरका सहलाना, खड़े होना गमन करना प्रादिको स्वयं करते हैं । वे महाशक्तिशाली - - उत्तम संहननधारी मुनि कदाचित भी परसे सेवा, अनुग्रह सहायता नहीं चाहते ।।२११४|| देव मनुष्य और तिर्यंच द्वारा दारुण उपसर्ग किया जानेपर उसको वे बलवान मुनि शांतभाव से निराकुल हो सहते हैं ।। २११५ ।। महा धैर्यशाली उन मुनिराजको खोटे भयंकर भूत, प्रेत, बेताल, शाकिनी, ग्रह राक्षस आदिके द्वारा किसी तरह भी डराया नहीं जा सकता ।।२११६ ।। विक्रिया ऋद्धिधारो देवों द्वारा चित्तको चुराने वाली बड़ी भारी ऋद्धिको दिखाने पर भी वे मुनिश्वर कभी भी मोहित नहीं होते अर्थात् कोई देव उन्हें ऋद्धि वैभव दिखलाकर मोहित करना चाहे संयमसे च्युत करना चाहे तो कदापि नहीं कर सकते ।।२११७॥ उन योगोश्वरको
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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