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मरणकण्डिका
संपद्यतेऽखिलास्तस्य दुःखाय यदि पुद्गलाः । तथापि जायते जातु ध्यानविघ्नो न धीमतः ॥२११८॥ सुखाय यदि लभ्यते सर्वेपुदगलसंचया: । तथापि धीरधीनासो ध्यानतश्चलतिस्फुटम् ॥२११६॥ उपेक्षते विनिक्षिप्तः सचित्तहरिताविषु । उपसर्गशमे भूयो योग्यं स्थानमित्ति सः ॥२१२०।। परीषहोपसर्गाणामेवं विषहनोद्यतः । मनोवाक्कापगुप्तोऽसौ निःकषायो जितेत्रियः ॥२१२१॥ इहामुत्र सुखे दुःखे जोषिते मरणे सुधीः । सर्वथा निःप्रतीकारश्चतुरंगे प्रवर्तते ॥२१२२।। वाचनापृच्छनाम्नाय धर्म देशन वजितः । षीरः सूत्रार्थयोः सम्पाध्यायत्येकान मानसः ॥२१२३।।
संसारके समस्त पुद्गल-पदार्थ दुःख देने में उद्यमी होवे तो भी वे आकुलित दु:खित नहीं होते तथा उनके ध्यानमें कभी भी विघ्न नहीं होता ॥२११८॥ तथा संसार के संपूर्ण पुद्गल उनके सुखके लिये प्राप्त होवे तो भी धीर बुद्धिवाले वे यतिराज ध्यानसे चलायमान नहीं होते ॥२११९।।
किसी क्रूर पशु आदि द्वारा सचित्त हरित तृण प्रादिपर डाल दिये जानेपर भी वे मुनि उपसर्गको सहते हुए वहीं स्थित रहते हैं, यदि उपसर्ग दूर हो जाय तो पुन: उसी योग्य प्रासुक स्थानमें लौटकर आ जाते हैं ॥२१२०॥ परीषह और उपसगाको सहन करने में सदा उद्यत रहते हैं, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति इन सोन गुप्तियों से युक्त कषायभावसे रहित और जितेन्द्रिय होते हैं ।।२१२१।।
___ इस लोक और परलोक में सुख और दुःखमें जीवन और मरण में वे सर्वथा रागद्वेष रहित होते हैं और चार आराधनाओं में प्रवृत्त होते हैं ॥२१२२॥ वाचना, पृच्छना, आम्नाय और धर्मोपदेश इन चार प्रकारके स्वाध्यायमें प्रवृत्ति नहीं करते, वे