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अवी चार भक्त त्याग इंगिनी प्रायोपगमनाधिकार
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एवमष्टसु यामेष निनिद्रो ध्यानलालसः । भवन्ती हठतो निद्रा न निषेवत्यसो पराम् ।।२१२४॥ स्वाध्यायकाले विक्षेपाचंतास्तस्य न च क्रियाः । ध्यानं श्मशानमध्येऽपि कुर्वाणस्य निरंतरम् ॥२१२५।। यथोक्तं कुरुते सर्वमावश्यकमतंद्रितः । विधत्ते स द्वयं कालं उपधिप्रतिलेखनम् ॥२१२६।। सहसा स्खलने जाते मिथ्याकारं करोति सः । प्रासीनिषद्यकाशब्दौ घिनिःक्रांति प्रवेशयोः ॥२१२७॥ पादयोः कंटके भने रजईक्षणयोगते । तूष्णीमास्ते स्वयं धीरो परेणोद्धरणेऽपि सः ॥२१२।।
एकाग्र मन होकर सूत्र और अर्थका भलीप्रकारसे चिंतन मात्र करते हैं अर्थात् अनुप्रेक्षा नामके स्वाध्यायको ही करते हैं अन्य वाचना आदि स्वाध्यायको नहीं करते ।।२१२३॥ इसप्रकार वे योगीश्वर पाठों प्रहरोंमें निद्रा रहित और ध्यानके इच्छुक हो रहते हैं, जबरदस्तो निद्रा आजाये तो सोते नहीं अथवा कदाचित अति अल्प निद्रा लेते हैं । बहुत निद्रा नहों लेते ।।२१२४।। स्वाध्यायकाल में प्रतिलेखन अर्थात् यह क्षेत्र स्वाध्याय योग्य नहीं है यह काल उपयुक्त नहीं है इत्यादि विचारकी उन्हें आवश्यकता नहीं होतो क्योंकि वाचना आदि स्वाध्याय नहीं करते हैं, श्मशानके मध्य में भी निरंतर ध्यान करते हैं ॥२१२५॥ आलस रहित होकर सर्व आवश्यक सामायिक आदि यथोक्त विधिसे करते हैं, वे दोनों संध्याओंमें पीछी कमंडलु संस्तरका प्रतिलेखन-शोधन करते हैं ।।२१२६।। कदाचित किचित् असिक्रम अतीचार हो जाय तो "मिच्छा मे दुक्कड" मेरा दोष मिथ्या हो इसप्रकार मिथ्याकार करते हैं, कहीं वन, गुफा या अपने स्थान में प्रवेश और निष्क्रमण करते समय अस्सहो अस्सहो, निस्सही निस्सही शब्दोंका उच्चारण करते हैं ।।२१२७।। इंगिनोमरणको ग्रहण करनेवाले मुनोश्वरके पैरों में काँटे लग जाय तो तथा आंखोंमें धली आदि जाय तो मौन रहते हैं उन कांटे आदिको निकालते नहीं, कदाचित् कोई अन्य निकाल देवे तो मौन रहते हैं ।।२१२८॥
इसतरह कठोर तप करते हुए उनके नानाप्रकारको ऋद्धियां उत्पन्न हो तो बे महामना विराग युक्त है मानस जिनका ऐसे कभी भी उन ऋद्धियोंका सेवन-प्रयोग