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________________ ७४ ] मरगकण्डिका गृह्णाति प्रासुका भिक्षां गत्वा प्रत्यागतो यतः । शम्बूकावर्त गोमूत्र पुटेष शलभायनः ॥२२॥ पाटकायसथ द्वार वात् देयादि गोचरम् । संकल्पं विविधं कृत्वा वृत्तिसंख्या परो यतिः ॥२२६।। लना तृष्णालतारूढा चित्रसंकल्प पल्लवाः । कुर्यता वृत्तिसंख्यानं परेषां दुश्चरं तपः ॥२२७।। तिर्यगकमुपर्यर्क मन्वर्क प्रतिभास्करं । यतिग्रामान्तरं गत्वा प्रत्यागच्छति वा यतिः ॥२२॥ - - - .... ----- -- वत्तिपरिसंख्यान-आहार को जाते समय साधुजन विविध नियम लेते हैं कि अमुक आहार मिले, अमुकव्यक्ति पड़गाहन करे, अमुक गली में मिले तो लेवगा अन्यथा नहीं, यहां पर इसीका वर्णन करते हैं--आहार के लिये गमन कर जिस रास्ते से जागा वापिस लौटते समय विधिपूर्वक प्रासुक आहार मिलेगा तो ग्रहण करूगा अन्यथा नहीं, इस विधि को गतप्रत्यागत विधि कहते हैं । शंखमें जैसे आवर्त्त होते हैं वैसे ग्रामादि में आहार के लिये भ्रमण करते हुए आहार मिलेगा तो ग्रहण करूगा, अथबा गोमूत्रवत् भ्रमण करते हुए यदि भिक्षा मिलेगी तो लूगा, इषु-बाणके समान सोधी गली से जाते हए या पतंगवत् अर्थात् एक निश्चित अमुक घरमें मिलेगा तो ग्रहण करूगा, इसप्रकार नियम लेना ॥२२५।। अमुक मोहल्ले में, घरके द्वार पर, अमुक दाता के यहां इत्यादि प्रकार आहार मिलने का नियम लेना, आहार में दाल ही लूगा, मोठ हो लूगा अर्थात् ये पदार्थ मिले तो आहार करना अन्यथा नहीं इसतरह विविध प्रकार के संकल्प करके आहार लेना, ऐसे संकल्प पूर्ण नहीं हुए तो समाधान पूर्वक बसतिकामें लौट आना वृत्तिपरिसंख्यान तप है ।।२२६।। अन्य जनोंको दुष्कर ऐसे इस बृत्ति परिसंख्यान तपको करने वाले साधु द्वारा विचित्र संकल्परूप पत्तों वाली तृष्णारूपी लता काट दी जाती है अर्थात् उस साधुकी लालसा समाप्त होती है ॥२२७॥ कायक्लेश तप--जिस दिन कड़ी धूप हो उस दिन पश्चिम दिशा की तरफ गमन करना अनुअर्क गमन कहलाता है, सूर्यको तिरछे करके गमन, तिर्यक् अर्क गमन है । सूर्यके मस्तक पर रहते गमन उपरि अर्कगमन है। गर्मी के दिनों में इसप्रकार सूर्य के प्रति गमन-बिहार करना कायक्लेश तप है क्योंकि इस क्रिया द्वारा काय
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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