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________________ सल्लेखनादि अधिकार [७३ महाविकारकारिण्यो भव्येन भवभोरणा । जिनाज्ञाकाक्षिणात्याज्या यावजीवं पुरव ताः ॥२२०॥ गुड़तलवधिक्षीर सर्पिषां वर्जने पति । देशतः सर्वतः ज्ञेयं तपः साधो रसोझतम् ।।२२१॥ अशनं नीरसं शुद्ध शुकमस्वादु शीतलम् । भुजते समभावेन साधवो निजितेन्द्रियाः ॥२२२॥ येऽन्येऽपि केचनाहारा वृष्या विकृतिकारिणः । ते सर्वे शक्तितस्त्याज्या योगिना रसजिना ॥२२३।। सन्तोषो भावितः सम्यग ब्रह्मचर्य प्रपालितम् । दशितं स्वस्य वैराग्यं कुर्वाणेन रसोझनम् ॥२२४।। --.-- - -. . .--..---.-...---...- .-.-.-..-- -- - - - मधु असंयमकारी है । अथवा ये चारों ही निकृष्ट पदार्थ कांक्षा आदि सब दोषों को करते हैं अर्थात् एक मांस या एक मक्खन आदिमें एक एकमें सबके सब दोष भरे पड़े हैं । इसलिये जिनदेव की आज्ञा का पालन करने के इच्छुक संसार से भयभीत भव्य पुरुषको पहलेसे ही यावज्जीव तक ये पदार्थ सर्वथा त्याज्य हैं ॥२१९॥२२०।। रस परित्याग तप-गुड़, तेल, दधि, दूध, घो इन रसोंका पूर्णरूप से या एक दो आदि रसोंका त्याग करना साधु का रस त्याग तप कहलाता है ॥२२१।। इन्द्रियोंको जिन्होंने वश कर लिया है ऐसे साधुअन भोजन नीरस हो, रूखा हो, चाहे ठण्डा हो, स्वाद रहित हो किन्तु शुद्ध हो उसे समभाव से ग्रहण कर लेते हैं। उसमें किसी प्रकार द्वेष भाव नहीं करते ।। २२२ ॥ रस त्याग के इच्छुक योगीको गरिष्ठ आहार, विकार करने वाला आहार ऐसा अन्य कोई आहार हो उन सब प्रकार के आहारों को शक्ति अनुसार छोड़ देना चाहिये ॥२२३।। जो साधु इस रस त्याग को करता है वह अपने जीवन में सन्तोष प्राप्त कर लेता है, अच्छीप्रकारसे ब्रह्मचर्य का पालन तथा वैराग्य की वृद्धि को प्राप्त करता है । अर्थ यह है कि रसका त्याग करनेसे विकारी भोजन नहीं होता उससे ब्रह्मवर्य प्रादि सुरक्षित रहते हैं । जैसा मिला वैसा सन्तोष पूर्वक लेने में आता है क्योंकि रसोंको लालसा नहीं रही ।।२२४।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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