________________
३४ (ख)
सकी। राजमल को इस भौतिक अर्थकरी शिक्षा से प्रयोजन भी क्या था। उसे तो आत्म विद्या में दक्षता पानी थी।
अपने असीम पुण्योदय से 'राजमल' को संवत् २००० में आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज के दर्शनों का प्रथम सौभाग्य मिला, आचार्य श्री एवं संघ के सान्निध्य से आपके जीवन की दिशा ही बदल गई । आपके हृदय में परम कल्याणकारी जैन धर्म के प्रति अनन्य श्रद्धा बलवती हुई। १७ वर्ष को किशोरावस्था में ही परम पूज्य आनावर श्री वीरसागरजी महाराज की सत्प्रेरणा से प्रभावित होकर आप संघ के अभिन्न अंग हो गये और आपने जैनागम का टोस गहन अध्ययन प्रारम्भ कर दिया। जैसे जैसे आपकी निर्मल आत्मा में ज्ञान प्रगट हुआ तैसे-तैसे आपकी प्रवृत्ति बैराग्योन्मुख होने लगी । ज्ञान का फल वैराग्य ही तो है। स्वामि कातिकेयाचार्य ने कहा है
इय दूलहं मणयत्त लहिणं जे रमंनि विसएम् ।
तेलहिय दिब्बरयणं, भुइणिमित्त पजालंति ।। इस दुर्लभ मनुष्य-पर्याय को प्राप्त करके भी जो इंद्रियों के विषयों में रमते हैं, वे मुढ़ दिव्यरत्न को पाकर उसे भस्म के लिये जलाकर राख कर डालते हैं 1
जैनागमों का आपका अध्ययन फलीभूत हुआ। २० वर्ष के नवयौवन में जहां आज युवक-युवतियां शादी-व्याह की चिन्ता में रत रहकर अपना संमार बढ़ाने का आयोजन करते हैं, वहीं 'राजमल ने विक्रम संवत् २००२ में झालरापाटण (राजस्थान) में आचार्य श्री से सप्तम प्रतिमा (आजीवन ब्रह्मचर्य) के नत अंगीकार कर भोगों से विरति का उपक्रम प्रारम्भ किया । अब राजमल ब्रह्मचारी राजमल हो गये । बुद्धि तो प्रखर थी ही, लगन और अथवा श्रम से आपने आगम ज्ञान का मानसिक और भौतिक दोनों रूपों में संचय क्रिया, फलस्वरूप संघ और समाज में आपको 'महापण्डित' के रूप में लोकप्रियता मिली। परन्तु आत्मार्थी ब्र. राजमल को इस लोकप्रियता और विद्वत्ता से तृप्ति नहीं मिली। उन्हें तो अमृतचन्द्राचार्य की इस उक्ति पर पूर्ण आस्था थी
आत्मध्यानरनिर्जेय, विद्वत्तायाः परं फलम् ।
अशेषशास्त्रशास्तृत्वं, संसारोऽभापि धीधनैः ।। _ 'विद्वत्ता की सफलता इसी में है कि आत्मज्ञान में लीनता हो । यदि वह नहीं है तो उसका सम्पूर्ण शास्त्रों का शास्त्रीपना (पठन-पाठन, विवेचन आदि कार्य) संसार