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________________ परम पूज्य १०८ आचार्य रत्न श्री अजितसागरजी महाराज का संक्षिप्त जीवन वृत्त गौरवर्ण, मध्यम कद, चौड़ा ललाट, भीतर तक झांकती-सी ऐनक धारण की हुई आंखें हितमित प्रिय धीमा बोल, संयमित सधी चाल और सतत सान्त मुद्रा, बस यही है इनका अंगन्यास । विषयाशाविरक्त, अपरिग्रही, ज्ञान-ध्यान- तप में निरत विद्यारसिक, महापण्डित, निस्पृह, भद्रपरिणामी, साधना में कठोर, वात्सल्य में मुकोमल, सरल प्रवृत्ति, तेजस्वी महान् आत्मा, बस यही है इनका अन्तर आभास | जिसका आदर्श जीवन दूसरों के लिये प्रेरणा का स्रोत हो, जो कहने की अपेक्षा करके बताए और जो मनुष्य पर्याय में 'करणीय' को आत्मसात् कर सतत विकासोन्मुख हो, वास्तव में जीवन वही है, अन्यथा जीवन की घड़ियां तो सबकी बीतती ही हैं । विद्वत्ता और चारित्र परस्पर पूरक है। श्रद्धा इनको दृढ़ता प्रदान करती है और इन तीनों का सामंजस्य जीवन का लक्ष्य रत्नत्रय बन जाता है इस रत्नत्रय का भव-भवान्तरों तक सतत साधन ही एक दिन साधक को अपने गन्तव्य तक पहुँचाता है वह गन्तव्य है मुक्ति, निर्वाण, सिद्धावस्था | वर्तमान के ऐसे ही साधकों में एक नाम है- आचार्य रत्न अजितसागर । यथा नाम तथा गुण । विक्रम संवत् १६८२ में भोपाल ( म०प्र०) के निकट 'आष्टा' कस्बे से जुड़े भौंरा ग्राम में परम पुण्यशाली सुश्रावक श्री जबरचन्दजी पद्मावती पुरवाल के घर माता रूपाबाई की कोख से एक बालक ने जन्म लिया था। आज प्रायः सबके जन्मों का लेखा-जोखा नगरपालिकायें रखती हैं पर कुछ ऐसे भी हैं जिनके जन्म का लेखा राष्ट्र, समाज और जातियों के इतिहास प्यार से अपने अंक में सुरक्षित रखते हैं । यह बालक भी ऐसा ही था - राजमल । परिवार की आर्थिक स्थिति सामान्य थी । साधारण काम धन्धा था, अतः अपने बड़े तीन भाइयों की तरह बालक राजमल की भी स्कूली शिक्षा पूर्ण नहीं हो सकी, पर बालक की बुद्धि प्रखर थी, स्वभाव सरल था और व्यवहार विनम्र अतः वस्तु-परिज्ञान उसे शीघ्र ही हो जाता था । पर अध्ययन का क्रम नहीं चल सका । बस, इन्दौर जिले के अजनास ग्राम में स्कूली शिक्षा विधिवत् कक्षा चार तक ही हो
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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