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मश्रण कण्डिका
पानं नयंसि चत्वारो द्रव्यं तदुपकल्पितं । अप्रमत्ताः समाधानमिच्छन्तस्तस्य विश्रमाः ॥६६२॥
विशेषार्थ-क्षपकके लिये आहारकी व्यवस्था ऐसे मुनि करें कि जो अश्रम, निर्मान और लब्धि संपन्न हैं । आहारको व्यवस्था करने में जो श्रमका अनुभव नहीं करते अर्थात् हम कबतक आहारकी व्यवस्था करें? हम तो थक गये हैं ऐसे भावसे जो रहित हैं वे अनम हैं । हमें ऐसा काम करना पड़ता है इत्यादि मानके भाव नहीं करने वाले निर्मान मुनि हैं । लब्धि संपन्न विशेषण तो बहुत महत्वपूर्ण है, जिन मुनियों के आहार संबंधो ऋद्धि प्राप्त हैं वे क्षपकके आहारको व्यवस्था निर्दोष संपन्न कर सकते हैं। परिचारक मुनि द्वारा व्यवस्थित किया गया आहार उद्दिष्ट आदि दोष और वात पित्तादि दोषसे रहित होना चाहिये तथा प्रासुक होना चाहिये ।
यहां पर कोई का करे कि श्राहारको लाना आदि मनिजन कैसे कर सकते हैं ? सो उसका समाधान यह है कि समाधिस्थ साधुके शक्ति क्षीण होनेपर वह स्वयं आहारको जा नहीं सकता प्रतः प्राचीन काल में अन्य मुनि श्रावकोंके वसतिमें जाकर वहांसे प्रासुक निर्दोष आहार ले आते थे । इस विषयमें गुरुजनोंके मुखसे इसप्रकार सुना है कि जब कोई मुनि भक्त प्रत्याख्यान मरणको धारण करता था तब उसको वैयावृत्यमें अन्य मुनिजन जुट जाते थे। उन मुनियोंमेंसे जिन्हें लाभांतराय आदिका तोव उदय नहीं है, जिन्हें आहारको प्राप्ति अत्यन्त सुलभतासे हुआ करती है ऐसे मुनि आहारार्थ श्रावकोंके यहां जात हैं वहां पड़गाहन आदि होनेपर आहारकी थाली सामने आजानेपर तपद्या भक्तिके अनंतर स्वयं आहार नहीं करते और मौनको छोड़कर श्रावकोंके द्वारा उस आहारको जहां क्षपक मुनि स्थित है वहां साथमें ले आते हैं और उस क्षपक मुनि का आहार करवाते हैं और स्वयं उस दिन उपवास करते हैं ।
वर्तमान में मुनिगण श्रावकोंके निकट धर्मशाला आदिमें निवास करते हैं अतः सल्लेखना विधिमें हरप्रकारसे श्रावकों द्वारा सहायता मिलती है इसलिये क्षीणकाय क्षपक मुनिके योग्य आहारको व्यवस्था श्रावक कर लेते हैं ।
आगे और भी क्षपकके वैयावृत्यमें तत्पर होनेवाले मुनियोंका कर्तव्य बतला