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मरकण्डिका
अंतर्मुहूर्तशेषायुर्यदा भवति संयमी I समुद्घातं तदा धीरो विद्यते कर्मभूतये ।।२१८२ ॥ प्रविकीर्ण यथा वस्त्रं विशुष्यति न संवृतम् । तथा कर्मापि बोद्धव्यं कर्मविध्वंसकारिभिः ।।२१६३॥ समुद्घाते कृते स्नेहस्थितिहेतुविनश्यति । क्षीणस्नेहं ततः शेषमल्पीय: स्थितिः जायते || २१८४ ॥
केवली समुद्घात कब होता है सो बताते हैं
सयोगी केवली भगवानको आयु जब अन्तर्मुहूर्त शेष रहती है तब धीर संयमी भगवान् कर्मोंका स्थिति ह्रास करनेके लिये समुद्घात क्रियाको करते हैं
।।२१८२॥
केवली समुद्घातमें आत्मा के प्रदेश तीन लोकमें फैलते हैं, उससे कर्मों की स्थिति कम होती है । प्रदेश फैलने से स्थिति किसप्रकार कम होती है ? ऐसा प्रश्न होनेपर दृष्टांत द्वारा उत्तर देते हैं
जैसे गीले वस्त्रको फैला देवें तो सूख जाता है बिना फैलाये सूखता नहीं वैसे कर्म भी फैलाने पर कम स्थिति वाला होता है बिना फैलाये उनकी स्थिति घटती नहीं ऐसा कर्मोके नाशक जिनेन्द्र देवोंने कहा है । भाव यह है कि तोन लोकमें आत्मा के प्रदेश फलते हैं उस वक्त आत्मप्रदेशोंके साथ ही क्षोर नीरवत् श्रुले मिले कर्मप्रदेश भी फैलते ही हैं और इसतरह कर्मप्रदेशों के फैल जानेसे उनको स्थिति (आत्मा के साथ रहने की स्थिति - कालमर्यादा) कम हो जाती है ।।२१८३||
समुद्घात करनेपर कर्मोंको स्थितिका हेतु जो स्नेह गुण स्निग्धता थी वह नष्ट हो जाती है और इसतरह स्नेहके क्षीण होने से समस्त कर्म अल्प स्थिति वाला हो जाता है ।।२१८४।।
भावार्थ - कर्म प्रदेशोंका परस्पर में जो संबंध है वह उनके स्नेह या स्निग्ध गुणके कारण है, कर्म प्रदेशों को सर्वत्र फैला देनेसे उनको स्निग्धता कम होती है अतः कमकी स्थिति कम होती है । इसप्रकार समुद्घात करनेसे कर्मों की स्थिति किस प्रकार