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पंडित पंडित मरणाधिकार
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दंडकपाटकं कृत्वा प्रतरं लोकपूरणं । चतुभिः समययोंगी तावद्भिश्च निवर्तते ॥२१॥
घटती है कम होतो है ? इस शंकाका समाधान हो जाता है । इसमें गोले वस्त्रका दृष्टांत भो दिया है इसतरह केवली समद्धात द्वारा कर्मोको स्थिति कैसे घटती है इस विषयको यहां पर आचार्यने बहुत सुन्दर रीतिसे समझाया है ।
केवली समुद्घातमें आत्माके प्रदेश किस क्रमसे फैलते हैं उसको बतलाते हैं
सयोगी जिन चार समयों द्वारा दंड, कपाट प्रतर और लोक पूरण इसतरह चार प्रकारसे आत्मा प्रदेशों को फैलाते हैं और पार समयों द्वारा उन प्रदेशोंको संकुचित करते हैं ॥२१८५।।
विशेषार्थ-सयोगी जिनेन्द्र अंतर्मुहूर्त आयु शेष रहनेपर आयुके बराबर शेष नाम कर्मादिको स्थिति करने के लिये केबली समुद्घात करते हैं—पूर्वाभिमख या उत्तराभिमुख होकर कायोत्सर्ग या पद्मासन में स्थित होते हैं । समुद्घातमें सर्वप्रथम आत्मप्रदेश दण्डाकार होते हैं इसमें मूल शरीरके प्रमाण चौड़े होकर कुछ कम चौदह राजू प्रमाण ऊपर नीचे लोकमें फैल जाते हैं यह कायोत्सर्ग आसन वाले केवलीको बात है । जो पचासन वाले हैं उनके आत्मप्रदेश शरीरसे तिगुने चौड़े होकर दण्डाकार फैलते हैं । दूसरे समय में कपाटाकार फैलते हैं इसमें जो पूर्वदिशाभिमुख हैं उनके दक्षिण उत्तर चौड़े सात राजू प्रमाग और जो उत्तराभिमुख हैं उनके पूर्व पश्चिम चौड़े सात राज प्रमाण होकर आत्मप्रदेश फैलते हैं । अर्थात् जैसे किवाड़ बाहल्य मोटाईमें स्तोक होकर भी लंबाई और चौड़ाई में बड़ा रहता है वैसे विस्तार में जीब प्रदेश कुछ कम चौदह राजू लंबे और दोनों पार्श्व भागोंमें सात राजू चौड़े होकर फैलते हैं। अर्थात् पूर्वाभिमुख वालेके दक्षिण उत्तर सात राजू चौड़ और उत्तराभिमुख वाले के पूर्व पश्चिम हानि वृद्धि रूप सात राजू चौड़ फैलते हैं (क्योंकि लोकाकाशकी चौड़ाई पूर्व-पश्चिम हानि बद्धिरूप सात राज है ) तोसरे समय में प्रतराकारसे जोव प्रदेश फैलते हैं अर्थात् मोटाईको लिये हुए वातबलयके अतिरिक्त समस्त लोकमें फैलते हैं। इसप्रकार दण्डाकारमें लंबे, कपाटाकारमें चौड़े और प्रतराकारमें मोटाई रूप जीव प्रदेश फैलते हैं। चौथे समय में लोकपूरण रूप फैलते हैं अर्थात् वातदलयोंमें भी सर्वत्र फैल जाते हैं। पुनः संकोच होता है उसमें पांचवें समयमें प्रत राकार छठे समयमें कपाटाकार सातवें