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________________ मरणकण्डिका भवन्त्यन्ये भवाः सप्त, मध्यया मध्यलेश्यया । संख्याता वाप्यसंख्याता, हीनया हीन लेश्यया ॥५४॥ तत्र केवलिनो वर्या, मध्या सा शेष सशाम् । असंयतस्य सदष्टे, होनं संक्लिष्टचेतसः ।।५।। संख्यातामप्यसंख्याता, मनुसत्याथ संसृतिम् । मृत्युकालेऽनुगच्छन्तो, जीवाः सिध्यन्तिदर्शनम् ॥५६॥ अर्थ- मध्यमलेश्या द्वारा सम्यक्त्व की आराधना करने वाले जीवों के सात भव शेष रहते हैं, अर्थात् सात भवों को लेकर मुक्त हो जाते हैं। तथा जघन्य लेश्या युक्त सम्यक्त्व आराधना करने वाले जीवों के संख्यात अथवा असंख्यात भव शेष रहते हैं । अनंतर वे जीव सिद्ध अवस्था को प्राप्त करते हैं ।।५४।। अर्थ-उन तीन प्रकार के लेश्यायुक्त तम्यक्त्व आराधनाओं में से उत्कृष्ट लेण्यायुक्त सम्यक्त्वाराधक केवलो जिन हैं पंचम गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान तक के सम्यग्दृष्टि जीवों के मध्यम लेश्यायुक्त मध्यम सम्यक्त्व आराधना मानी हैं ( और उनके सात भव ही शेष रहते हैं ) चतुर्थ गुणस्थान वाले संक्लिष्ट परिणामी असंयत सम्यक्त्वी के जघन्य लेश्या युक्त जघन्य दर्शनाराधना होती है ॥५५।। अर्थ-मरणकाल में यह जोब यदि दर्शन की जघन्य आराधना भी कर लेता है अर्थात् मरते समय सम्यक्त्व से च्युत नहीं होता है और उसके चारित्र नहीं है, अविरत है तो भी वह उस सम्यक्त्वाराधना के प्रताप से संख्यात अथवा असंख्यात भव संसार परिभ्रमण कर अवश्यमेव मुक्त हो जाता है ।।५६।। भावार्थ-सम्यक्त्व होकर छुट गया तो ऐसे जीवों के भव अनंत भी हो सकते हैं-वह अर्ध पुद्गल परावर्त्तन प्रमाण काल तक संसार में रुल सकता है किन्तु यदि मरणकाल में सम्यक्त्व नहीं छूटता सम्यक्त्व को लेकर परलोक गमन करता है तो उसके संख्यात या असंख्यात भव ही शेष रहते हैं इससे अधिक नहीं । यदि पंचम आदि आगे के गुणस्थानों में मरण होता है अर्थात् सम्यक्त्व के साथ देशचारित्र अथवा सकल चारित्र भरते समय रहता है तो वह जीव नियम से सात भवों में प्रमुक्त हो जाता है। अर्थ यह हुआ कि मरण के समय में सम्यक्त्व रहना अधिक महत्वपूर्ण है। सम्यक्त्व होकर प्रायः छुट जाता है, विरले ही जीवों के मृत्यु के समय में बह रह पाता है। तथा
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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