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________________ बालमरणाधिकार [२१ मुहूतमाप ये लब्ध्वा, जीवा मुचन्ति दर्शनम् । नानंतानंत संख्याता, तेषापद्धा भवस्थितिः ॥५७।। * इति बालमरणाधिकारं समाप्त * सम्यक्त्व के साथ-साथ देश विरत सकल विरत रूप चारित्र होना उससे और अधिकअधिक दुर्लभ है, क्योंकि संक्लेश के कारण प्रायः मरणकाल में चारित्र की बिराधना हो जाया करती है। अतः जीवन में सम्यक्त्व हुआ इस महत्व से अधिक महत्व मरते समय सम्यक्त्व रहा इस बात का है। एवं जीवन में देशव्रत या महाव्रत का पालन किया इस महत्व से अधिक महत्व मरणकाल में भी चारित्र रहा इस बात का है । सम्यक्त्व सहित होकर विरले जीव ही मृत्यु को प्राप्त करते हैं तथा सम्यक्त्व और चारित्र दोनों से संयुक्त होकर मृत्यु करने वाले अति विरले जीव हैं । इसप्रकार जानकर सतत सम्यक्त्वाराधना में प्रयत्नशील होना चाहिए। अर्थ-जो जीव एक मुहुर्त प्रमाण काल के लिये सम्यक्त्व प्राप्त करके उसे छोड़ देते हैं उन जीवों के संसार में रहने का काल अनंतानंत भव प्रमाण है ।।५७।। भावार्थ-जिनको अभी तक सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति नहीं हुई है उनके संसार परिभ्रमण का समय अथाह है वे कब तक संसार भ्रमण करेंगे इसका कुछ भी निश्चय नहीं है। किन्तु जिनके सम्यक्त्व होकर छूट भी गया तो वे जीव नियम से अर्ध पुद्गल परिवर्तन प्रमाण अनंतकाल भ्रमण कर मुक्त हो जायेंगे अर्थात् सम्यक्त्वी के संसार परिभ्रमण का किनारा आ जाता है, अतः सम्यक्त्व की महिमा अपरम्पार है, यही भवनाशक है। ।। बालमरण का कथन समाप्त हुआ ।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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