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बालमरणाधिकार
भक्तिः पूजा यशोबावो, दोषावज्ञा तिरस्क्रिया । समासेनैष निविष्टो विनयो वर्शनाश्रयः ॥ ५० ॥ मृतावाराधयन्नेवं निश्चरित्रोऽपि दर्शनं । प्रकृष्ट शुद्धलेश्याको, जायते स्वल्पसंसृतिः ॥५१॥ रोचका जंतवो भक्त्या, स्पर्शकाः प्रतिपादकाः । श्रागमस्य समस्त स्य, सम्यक्त्वाराधका मताः ।। ५२ ।। उत्कृष्टा मध्यमा होना, सम्यक्त्वाराधना त्रिधा । उत्कृष्ट लेश्यया तत्र, सिद्धयत्युत्कृष्टया तया ।। ५३ ।।
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भक्ति करना तथा पूजा, यशोगान करना, धर्मात्मा के दोषों को प्रगट न करना उनके दोषों को दूर करना ये सब दर्शन के विनय कहलाते हैं । इसप्रकार संक्षेप से दर्शन विनय का वर्णन किया है ||४६-५०।।
भावार्थ - अन्तरंग में महापुरुषों के गुणों में अनुराग होना भक्ति कहलाती है । आदर के भाव पूजा है। उन अरहंत आदि पूज्य जनों के गुणों का गान करना यशोगान है । पूज्य साधु आदि में किसी प्रकार का दोष हो तो उसे प्रगट न करना दोषावज्ञा 1 यदि अपने में योग्यता है तो युक्ति द्वारा उनके दोषों का निराकरण करना दोषतिरस्क्रिया कहलाती है ।
श्रर्थ -- इसप्रकार दर्शन की आराधना करने वाला सम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि चतुर्थं गुणस्थानवर्ती होने से चारित्र रहित है तो भी मरण काल में उत्कृष्ट और शुद्ध लेश्यायुक्त हुआ संसार भ्रमण को अल्प करता है । अर्थात् पोत पद्म और शुक्ल लेखामें यदि अविरत सम्यक्त्वी मरण करता है तो उसका संसार अत्यल्प रह जाता है ॥५१॥ श्रर्थ- - समस्त आगमार्थ की रुचि करने वाले, भक्ति से स्पर्श करने वाले एवं उस अर्थ का प्रतिपादन करने वाले जीव सम्यक्त्व के आराधक कहलाते हैं ।। ५२ ।। अर्थ – सम्यक्त्व आराधना के तीन भेद हैं- उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य | उत्कृष्ट लेश्या - शुक्ललेश्या से युक्त सम्यक्त्वी के जो आराधना होती है, उसे उत्कृष्ट सम्यक्त्व आराधना कहते हैं और इस उत्कृष्ट सम्यक्त्व आराधना वाले तथा उत्कृष्ट शुक्ललेश्या वाले सल्लेखना करके सिद्ध अवस्था को प्राप्त होते हैं । अर्थात् शुक्ललेश्या मुक्त सम्यक्त्वी जीव आराधना करके मुक्त हो जाते हैं ||१३||