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मारणादि अधिकार
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गंगायां नावि मग्नायां एणिकातनयो यतिः । अमूढमानसः स्वार्थ सापयामास शाश्वतम् ।।१६२२।।
महापुण्योदयसे चक्रवर्ती की विभूति को प्राप्तकर नवनिधि और १४ रत्नों का स्वामी हुआ । एक दिन सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र अपनी सभा में उनके रूप को प्रशंसा कर रहा था, जिसे सुनकर मणिमाल और रत्नचूल नामके दो देव गुप्त भेषमें आये और स्नान करते हुए चक्रवर्ती का त्रिभुवन प्रिय सर्व सुन्दर रूप देखकर आश्चर्यान्वित हुए। इसके बाद उन देवोंने अपने असली वेष में आकर वस्त्रालंकारोंसे अलंकृत सिंहासन पर स्थित चक्रवर्तीके रूपको देखा और खेदित हो उठे। राजाने इसका कारण पूछा तब देव बोले-महाराज ! यथार्थ में आपका रूप देवोंको भो दुर्लभ है, इसकी तो हमें प्रसन्नता है किन्तु मनुष्य का रूप क्षणाक्षयों है यह देखकर हमें खेद हुआ। जो रूप कुछ समय पहिले स्नानगृहमें देखा था, वह अब दिखाई नहीं देता । यह बात सभासदों की समझमें नहीं आई, तब देवोंने एक पानीसे भरा हुआ घड़ा मंगाया और उसमें से एक बूंद जल निकालकर सभासदोंसे पूछा कि बताओ पहिलेसे इस घड़ेमें कुछ विशेषता दिखाई दो क्या ? यह सब चमत्कार देखकर चक्रवर्तीको वैराग्य हो गया और वे जैनेश्वरी दीक्षा धारण करके तपश्चरणमें संलग्न हो गये। पूर्व पापोदयसे उनके सारे शरारमे भयंकर कुष्ट रोग उत्पन्न हो गया । एक देव उनके धर्यकी परीक्षा लेने के लिए वैद्यका वेष धारण करके आया और उपचार करानेका आग्रह करने लगा। तब मुनिराज बोलेभो वैद्य ! मुझे जन्म-मरण का भयंकर रोग दुःख दे रहा है, यदि आप इस रोगको चिकित्सा कर सकते हो तो करो । महाराज को बात सुनकर वैद्य अत्यन्त लज्जित हुआ
और चरणों में गिरकर बोला-स्वामिन् ! इस रोग को राम बाण औषधि तो आपके पास ही है । इस प्रकार देव मुनिराजके निर्दोष चारित्र को और शरीरमें निर्मोहपनेकी प्रशंसा करता हुआ स्वर्ग चला गया और सनत्कुमार मुनिराजने अपने धैर्य से उस परीषह पर विजय प्राप्त की और अष्ट कर्मोको नष्टकर मोक्षलक्ष्मोके स्वामी बने ।
सनत्क पार चक्रीको कथा समाप्त । एणिक पुत्र नामक मुनि नौकामें आरोहग कर गंगा नदी पार कर रहे थे मध्यमें नौका डूब गयी । उस वक्त सावधान बुद्धि होकर उन मुनिराजने आराधना द्वारा शाश्वत धाम मोक्ष प्राप्त किया था ।।१६२२।।