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अनुशिष्टि महाधिकार
[ ३२१ महिला मन्मथापासविलासोल्लासितातना । स्मृता पि हरते चितं बोक्षिता कुरुते न कि ॥११४५।। निर्मर्यादं मनः संगासंमूळं सुरतोत्सुकम् । पूर्वापरमनात्य शोलशालं विलयते ॥११४६।। कषायेन्द्रियसंझाभिरिवगुरुकाः सदा । सर्वे स्वभावत: संगादुद्भवन्स्यचिरेण ते ॥११४७।। मातृस्वससुताः पुंस एकांते यतो मनः । शीघ्र क्षोभ वजत्येय कि पुनः शेषयोषितः ॥११४८॥ निःसारी मलिनां जीणां विरूपां रोगिदहशम् । तिराची वा समोहेत नमनो मैथुनं प्रति ॥११४६।।
महिला मन्मथका आवास है, विलास भावमे उल्लसित हो रहा है मुख जिसका ऐसी होती है स्मरणमें आने मात्र से वह चित्तको हर लेती है तो फिर देखनेपर क्या नहीं करेगी ? अर्थात् देखने पर तो वह पुरुषको अवश्य ही अपने वश में करेगी ॥११४५॥
स्त्रीके संगसे पुरुषका मन मर्यादाको तोड़ देता है वह मोहित हुआ सुरत-रति कोड़ा के लिये उत्सुक हो उठता है और पूर्वापर का कुछ भी विचार नहीं करके शीलरूपी शाल-परकोटेका उल्लंघन कर डालता है ।।११४६।।
सभी संसारी प्राणी स्वभावत: कषाय इन्द्रियवशता और आहारादि चार संज्ञाओंसे भारी-युक्त हुआ करते हैं तथा गारव-घमंडसे युक्त होते हैं ऐसी स्थिति में उन्हें यदि स्त्रीजन का संग मिले तो शीघ्र ही वे कषाय आदि चारों अतिशय रूपसे प्रगट होने लग जाते हैं ॥११४७।। यदि अपनो माता, बहिन और पुत्री भी है और उसका एकांत में सहवास होता है तो उससे पुरुषका मन शोघ्र ही क्षोभको प्राप्त होता है, ऐसी स्थिति में शेष महिलाओंके एकांत संपर्कमें पुरुषका मन क्या क्षुभित नहीं होगा ? होगा ही ॥११४८।।
स्त्री निःसार है, मलिन है, वृद्ध है, कुरूप है, रोगो है, जिसके नेत्र भयावह हैं ऐसी स्त्रीको भी मनुष्य का मन काम सेवनेके लिये चाहता है और तो क्या कामुक मन तियचिनीको भी चाहने लग जाता है ॥११४६।।