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मरणकण्डिका
हुंकारांगुलिनेत्रभ्र मूद्ध कंपांजलिक्रियाः । ययासंकेतमध्यमः क्षपकः कुरुते सुधोः ॥१९८॥ संकेतवंतः परिचारकास्ते चेष्टाविशेषेण विवन्ति साधोः । पाराधनोद्योगमवेतशास्त्रा धूमेन चित्रांशुमिव ज्वलन्तम् ।।१९८६ ।
॥ इति ध्यानम् ॥ इत्यं समत्वमापन्नः शुभध्यानपरायणः । प्रारोहति गुणश्रेणी शुद्धलेग्यो महामनाः ।।१९८७।। बाह्याभ्यंतरभेदेन द्वधा लेश्या निवेदिता । शुभाशुभविभेदेन पुनघा जिनेश्वरः ॥१९८८॥
जाग्रति सावधानीके विषय में पूछे जानेपर ज्ञानी क्षएक मुनि हंकारसे, हाथ जोड़नेसे, भोंहे उठाकर, मस्तक हिलाकर, हाथको पांच अंगुलियां दिखाकर आचार्यको अपनी प्रसन्नता, ध्यानको लीनताको बतलाता है। यथायोग्य संकेतको वह क्षपक करता है जिससे आचार्य उसको सावधानी समझ जाय ।।१९८५।। संकेतको जाननेवाले एवं शास्त्रके ज्ञाता परिचारक साधु समुदाय तथा निर्यापक क्षपक साधुके द्वारा किये गये चिह्न-चेष्टा विशेषसे उसके आराधनाके उद्योगको जान लेते हैं। जैसे धूम द्वारा जाज्वल्यमान अग्निको जाना जाता है ।।१९८६॥ इसप्रकार ध्यान नामका सैंतीसवां अधिकार समाप्त हुआ।
लेश्यानामा अड़तीसवां अधिकारइसप्रकार बारह भावनामोंका जिसने चिंतन किया है, ध्यानका स्वरूप जाना है ऐसा क्षपकराज समताको प्राप्त होता है तथा शुभध्यान में परायण वह महामना साधु शुद्ध लेश्या-पीत, पद्म और शुक्ल लेश्या युक्त हो गुणश्रेणिका प्रारोहण करता है--आगेआगे अधिक-अधिक विशुद्धिको प्राप्त करता है ।।१९८७।।
लेण्याके भेदजिनेश्वर द्वारा लेश्याके दो भेद कहे गये हैं, बाह्य लेश्या और अभ्यंतर लेश्या अर्थात् द्रव्य लेण्या और भाव लेश्या पुनः उन दोनों के शुभ और अशुभके भेदसे दो दो भेद होते हैं ॥१९८८।। कृष्ण लेश्या, नील लेश्या और कापोत लेश्या ये तीन लेश्यायें