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ध्यानादि अधिकार
कषाय व्यसने मित्रं कषायव्यालरक्षणम् । पादायमाली मेहं पालने हरः ॥१९८१॥ कषायातिपे छाया कषायशिशिरेऽमाल । कषायारिमये त्राणं कषायव्याधिमेषजम् ॥१९८२॥ तोयं विषयतृष्णायामाहारो विषयक्षुधि । जायते योगिनो ध्यानं सर्वोपावसूदनम् ॥१९८३॥ माराधनायबोधार्थ योगो व्यावृत्तिकारणम् । तदा करोति चिह्नानि निश्चेष्टो जायते यदा ।।१९८४॥
यह ध्यान कषायरूप कष्टके समयमें मित्रके समान है, कषायरूप जंगली श्वापदोंसे रक्षा करनेवाला यही ध्यान है, ध्यान कषायरूप तूफान, मांधी वायुसे बचानेवाला घरके समान है तथा कषायरूप अग्निको शांत करनेके लिये सरोवर है ।।१९८१।। यह ध्यान कषायरूप सूर्यके घाम-आसपसे बचने के लिये छायावत है । कषायरूप शिशिरशीतको बाधाको नष्ट करने में अग्निके समान है । कषायरूप शसे रक्षा करनेवाला यह ध्यान ही है एवं कषायरूप रोगको औषधि ध्यान ही है ।।१९८२॥
यह ध्यान विषय तृषाको शांत करनेके लिये मिष्ट जलके समान है, विषयरूप क्षुधा लगनेपर मुनिजन इस ध्यानरूप पाहारको ही ग्रहण करते हैं, अधिक क्या करें ? यह ध्यान योगीजनोंके समस्त उपद्रवोंको शांत करनेवाला है, ऐसा निश्चयसे जानो ॥१९८३॥
आगे यह बताते हैं कि संस्तरमें आरूढ क्षपक अत्यंत क्षीणकाय होता है तब मैं ध्यानमें हूं, सावधान हूं, मेरा मन प्रसन्न है इत्यादि बातोंको मुखसे कहने में असमर्थ होनेसे चिह्न-इशारेसे उक्त बातको बताता है-जब क्षपक मुनि निश्चेष्ट-शरीर और मनकी चेष्टा करने में शक्ति रहित होता है तब मैं चार प्रकारको आराधनामें तत्पर हूं इस बात को निर्यापकाचार्यको ज्ञात कराने के लिये आगे कहे जानेवाले चिह्नोंको करता है अथवा यह क्षपक सावधान है या नहीं ऐसा आचार्यको संशय हो जाय और वे क्षपकको प्रश्न करे तो उनकी शंकाको दूर करने के लिये क्षपक चिह्न विशेष-इशारे विशेषसे अपनी आराधनाकी लीनताको प्रगट करता है ।।१९८४) आचार्य द्वारा