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मरणवाण्डिका दृष्ट्वात्मनः परं हीनं मो मानं करोति ना । दृष्ट्वात्मनोऽधिकं प्राज्ञो मानं मुचति सर्वथा ॥१४४७।। द्वेष कॉल भयं बरं युद्ध दुःखं यशः क्षतिम् । पूजाभ्रशं पराभूति मानो लोकद्वयेऽस्तुतः ॥१४४८॥ सर्वेऽपि कोपिनो दोषा माननः सति निश्चितम् । मानी हिंसानतस्तेय मैथुनानि निषेवते ॥१४४६।। निर्मानो लभते पूजां दुःखं गईमपास्यति । कोति साधयते शुद्धामास्पदं भवति श्रियाम् ।।१४५०।।
जो मुर्ख होता है वह अन्य व्यक्तिको अपनेसे होन देखकर (कल, बल, रूपादिमे होन) अभिमान करता है और प्राज्ञ पुरुष है वह अन्य व्यक्तिको अपनेसे कल आदिसे अधिक देखकर मानको सर्वथा छोड़ देता है ।।१४४७।।
भावार्थ-मुर्ख पुरुष दूसरे व्यक्तिको कुल रूप आदिसे हीन देखकर घमंड करने लग जाता है कि देखो ! मैं बहुत बड़े कुलका हूं यह तो नीचकुली है तुच्छ है इत्यादि । किन्तु बुद्धिमान पुरुष अपने से कुलहीनको देखकर अभिमान करना छोड़ देता है वह विचार करता है कि अहो ! चौरासो योनियों में परिभ्रमण करते हुए मैंने भी अनंत बार नीच कुल ही पाया है, काक तालीय न्याय से अब कुलवंत हो गया तो इसका क्या गर्व ! तथा बुद्धिमान पुरुष अपने से अधिक उच्चकुलीन किसी व्यक्तिको देख कर भी सोचता है कि इस संसार में एकसे एक बढ़कर कुलबान गुणवान पुरुष होते आ रहे हैं। इस व्यक्तिने पूर्व में सुकृत किया है मेरेको अपने कुलका अभिमान नहीं होना चाहिये देखो ! यह पुरुष कितना कुल वान् है इत्यादि विचार द्वारा बुद्धिमान पुरुष अपने परिणामको गर्व रहित करता है ।.
गर्व युक्त मनुष्य द्वेष , कलह, भय, वैर, युद्ध, दुःख, यशका नाश, आदरका नाग तथा परके द्वारा तिरस्कार इतने दोषों को प्राप्त करता है वह उभय-लोक में निंद्य हो जाता है ।।१४४८1
क्रोधी पुरुषके जो दोण बताये हैं वे सभो मानी पुरुषके नियमसे होते हैं। मानी हिंसा, झूठ, चोरी और मैथुन रूप पाप क्रियाका सेवन करता है ॥१४४९।।