________________
सल्लेखनादि अधिकार
संलिख्यं गौरवं संज्ञा नोकषाया महाभटाः । समस्ता निविता लेश्या समाधानं यता सता ॥२७५।। धितायग्रहः साधु प्रकटास्थिसिरादिकः । तनकृतसमस्तांगो भवत्यध्यात्मनिष्ठितः ॥२७६।। बाह्यामाभ्यन्तरौं कृत्वा योगी सहलेखनामिति । संसारत्यजनाकांक्षी प्रकृष्टं कुरुते तपः ॥२७७।।
___ इति सल्लेखना सूत्रम् । मिथ्याकार है । भो भगवन् ! प्रसन्न होवो, मैं आपको नमरकार करता हूँ इत्यादि रूप वचन कहना, आपकी शिक्षा बिलकुल सत्य है इत्यादि रूप कहना तथा कार कहलाता है ।
समाधान-शान्तभावमें यत्नशील सज्जन द्वारा कषायोंके समान गारव, संज्ञा तथा नौ नोकषाय रूपी महासुभट भी कृश करने चाहिये, समस्त अशुभ, कृष्ण, नील और कापोत लेश्याओंको निन्दित करना चाहिये अर्थात् छोड़ देना चाहिये ।।२७५।।
विशेषार्थ-गौरव या गारव तीन हैं-ऋद्धि गारव, रस गारव, सातागारव । अपने ऋद्धिका गर्व करना ऋद्धि गारव है। सरस भोजन प्राप्ति का मान करना रस गारव है और अपने सुखिया जीवनका मद करना साता गारव है । संज्ञाय आहार, भय मैथुन और परिग्रह रूप चार हैं । संजाका अर्थ यहाँपर वांच्छा लिया है आहारको वांच्छा आहार संज्ञा है ऐसे अन्य तीन संज्ञाके विषयमें लगाना । नोकषाय नौ हैंहास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुसकवेद । ये सब महासुभट सदृश हैं क्योंकि इन पर विजय पाना अत्यन्त कठिन है। किन्तु मोक्षके इच्छुक जन इनपर परम उपशम भाव द्वारा विजय प्राप्त कर लेते हैं ।
जिसने अपने अवग्रह-यम नियमोंको वृद्धिंगत किया है समस्त शरीर कृश होनेसे नसा, जाल और अस्थियाँ जिनकी साफ-साफ दिखायी दे रही हैं ऐसे अंग उपांगों को कृश करनेवाला साधु अपने आत्मामें निष्ठ हो जाता है ।।२७६।।
बाह्य सल्लेखना-शरीर कृश करना और अभ्यन्तर सल्लेखना-कषाय कृश करना इन दोनों सल्लेखनाको करके संसारका त्याग अर्थात् परि भ्रमणको छोड़ने के इच्छुक योगी प्रकृष्ट तपको करता है ।।२७७]।
॥ इति सल्लेखना सूत्र समाप्त ॥