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मरणकण्डिका
न शक्नोम्य शुचि त्याज्यमिदं वोढु महत्क्षयि । विचिन्त्येति वपु स्त्यक्तु गणं पाति कृतक्रियः ॥२७८।। अपि संन्यस्यता चित्यं हितं संघाय सूरिणा । परोपकारिता सद्भिः प्राणान्तेऽपि न मुच्यते ।।२७६।। विज्ञाय काल माहूय समस्तंगणमात्मना । पालोच्य सदृशं भिक्ष समर्थ गणधारणे ॥२८॥ प्रदेशे पावनीमूते चारुलग्नादिके दिने ।
गणं निक्षिपते तत्र स्वल्पां कृत्वा कथां सुधीः ।।२८१।। - - - -
दिशा नामका बारहवां अधिकार-समाधिके अवसरको प्राप्त हुए आचार्य ( अथवा साधु ) ऐसा विचार करते हैं कि यह शरीर मल मूत्र रूप अशुचि है, नष्ट होनेवाला है, त्याज्य है अब मैं इस शरीरको धारण करने में समर्थ नहीं हूँ। इस तरह शरोरत्याग का विचार करके जिसने समाधिको सामग्रीको प्राप्त किया है ऐसा वह साधू अपने संघके शिष्योंके निकट जाता है ।।२७८।।
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सल्लेखमा करनेके इच्छुक आचार्यको संघके हितका विचार करना चाहिये अर्थात मेरे जाने के बाद मुनि आर्यिका आदि चतुर्विध संघका अहित न हो जाय, संघस्थ साधुओंका रत्नत्रय धर्म सुरक्षित रहे इस बातका विचार आचार्य परमेष्ठी समाधिमरण धारण करते समय करते हैं । ठीक ही है सज्जन महापुरुष प्राणान्त में भी परोपकार नहीं छोड़ते हैं ।।२७९।।
समाधिकालको ज्ञात करके आचार्य अपने संघको बुलाते हैं तथा संघ धारण करने में समर्थ अपने सदृश साधुको देखते हैं-सोचते हैं ।।२८०।।
पवित्र क्षेत्रमें वार तिथि नक्षत्र लग्न दिन आदि सोम्य हो उस दिन योग्य शिष्य पर अपना संघ समर्पित करते हैं अर्थात् मवीन आचार्य बनाते हैं। तथा उक्त नबोन आचार्य को एवं शिष्योंको थोड़े शब्दों में समझाते हैं ।।२८१॥