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सहलेखनादि अधिकार
उक्त च-क्षेपक:ज्ञान विज्ञान संपन्नः स्वगुरोरभिसंमतः । विनीतोधर्मशोलश्च यः सोऽहंति गुरोः पर्व ॥१॥ अविच्छेदाय तीर्थस्य, तं विज्ञाय गुणाकरं । अनुजानाति संबोध्य विगयं भवतामिति ॥२८२॥
इति विक सूत्रम् सकलं गण मामन्त्र कृरवा गणि निवेशनं । स त्रिधा क्षमयत्येवं बाल वृद्धाकुलं गणं ॥२३॥ यदीर्घकाल संवासममत्व स्तेन रागतः । अप्रिय भरिणतं किंचित्तत्सर्वक्षमयामि वः ॥२४॥
आचार्य पदके योग्य कौन है यह क्षेपक [मूलारा० दर्पणसे उद्धृत] कारिका द्वारा बताते हैं- जो ज्ञान विज्ञान संपन्न है, अपने गुरुका मान्य है, विनीत, रत्नत्रय धर्मका पालक है वह शिष्य आचार्य पदके योग्य है ।।१॥
रत्नत्रय धर्मरूप तीर्थका नाश न हो वह सदा प्रवर्तित रहे इस हेतुसे गुणोंके आकर स्वरूप नूतन-आचार्यको संबोधन करते हैं कि तुमको अब संघका अनुग्रह इसप्रकार करना चाहिये इत्यादि उस बाल आचार्यको दिशाबोध देना ही दिक् या दिशा कहलाती है अर्थात् नूतन आचार्यको पुराने भूतपूर्व आचार्य जो शिक्षा-उपदेश दिशा बोध देते हैं उसका वर्णन इस "दिशा" नामा बारहवें अधिकारमें होता है, और इसीलिये इसका दिक्-दिशा यह नाम है ।।२८२।।
क्षमण नामका तेरहवां सूत्राधिकार--- ___ सकल गणको बुलाकर उसमें नूतन प्राचार्यको स्थापन कर वह भूतपूर्व आचार्य मन वचन कायसे बाल वृद्ध साधु युक्त संध से क्षमा मांगते हैं ।।२८३।।
हे संघस्थ साधुगण ! इस संघमें दीर्घकालसे रहते हुए ममता, स्नेह और रागके कारण आप लोगोंको जो कुछ अप्रिय कहा है उस कठोर वचन की मैं क्षमा मांगता हूं ।।२८४॥
अपने आचार्य द्वारा इस तरह क्षमा मांगने पर संघको क्या करना चाहिये यह बताते हैं-~