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बालमरणाधिकार
[ १३ मन्यते दर्शितं तत्त्वं, अन्तुना शुभदृष्टिना। पूर्व ततोऽन्यथापीदमजानानेन रोच्यते ॥३५॥
..---- ..- -- उदयाभावी क्षय और सद्वस्थारूप उपशम किया जाता है। विवक्षित कर्म प्रकृति का उदय पाने के एक समय पहले स्तिबुक संक्रमण द्वारा सजातीय अन्य कर्म प्रकृतिरूप होकर उदय में आना और निर्जीर्ण होना "उदयाभावीक्षय" कहलाता है। यहां पर अनंतानुबन्धी का उदयाभावी क्षय यह है कि अनंतानुबन्धी कषाय के उदय काल प्राप्त कर्म निषेकों का प्रतिसमय एक एक निषेक अप्रत्याख्यान आदि बारह कषायरूप संक्रमित होकर पर मुखसे उदय में आते रहना। इसीप्रकार मिथ्यात्व और मिश्र प्रकृति का सम्यक्त्व प्रकृतिरूप होकर उदय में आकर नष्ट होते रहना।।
सद्वस्थारूप उपशम-जो कर्म निषेक अभी वर्तमान में उदय प्राप्त नहीं हैं उनको सत्ता में ही अवस्थित रखना, असमय में (बीच में ही) उदय में नहीं आने देना (दबा देना) सद्वस्थारूप उपशम कहलाता है। जैसे अनन्तानुबन्धी कषाय का जो द्रव्य उदय प्राप्त था उसे तो परमें संक्रामित कर दिया था। अब सर्व शेष द्रव्य जो हैं उन्हें मध्य में उदय में नहीं आने देंगे । इसप्रकार की प्रक्रिया को सद्वस्थारूप उपशम कहते हैं । इसप्रकार उदयाभावी रूप, सवस्थारूप उपशम के साथ सम्यक्त्वप्रकृति का उदय होना क्षयोपशम सम्यक्त्व कहलाता है ।
क्षायिक सम्यक्त्व-पूर्वोक्त चार अनन्तानुबन्धी और तीन दर्शनमोहनीय कर्मों का सर्वथा क्षय होकर जो शाश्वत प्रगाढ आत्म श्रद्धा तथा तत्त्व श्रद्धा प्राप्त होती है उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। यह क्षयोपशम सम्यक्त्व पूर्वक ही होता है। इन सम्यक्त्वों का विस्तार पूर्वक वर्णन लब्धिसार क्षपणासार शास्त्र से जानना चाहिये।
अर्थ-दर्शन आराधना को करने वाला सम्यग्दृष्टि जीव आप्त आदि पुरुषों द्वारा प्रतिपादित तत्त्वों पर श्रद्धान करता है. तथा अजानकार गुरुद्वारा अन्यथारूप तत्त्व पर ( विपरीत तत्त्व पर ) भो "यह गुरु ने कहा है" ऐसा समझकर श्रद्धा करता है ॥३५।।
भावार्थ-सम्यग्दृष्टि के वास्तविक तत्त्वों का श्रद्धालु होता है किन्तु कदाचित् तत्त्व देशना देने वाले गुरु अपने अज्ञान या प्रमाद विस्मति आदि के कारण विपरीत