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मरणकण्डिका
शामिकों क्षायिकी दृष्टि, वैविकीमपि च त्रिधा। समाराधयतः पूर्वा, सम्यक्स्वाराधनेष्यते ॥३४॥
नहीं है अत: उसके मरण को बाल मरण नामसे कहा जाता है। पंचम देश विरत गुणस्थान में होने वाले मरण को बाल पंडित मरण कहते हैं चूकि इसमें श्रद्धा है किंतु चारित्र अपरिपूर्ण है । इरो यारह गुण पानवती के डित मरण होता है क्योंकि श्रद्धा और चारित्र दोनों से सम्पन्न है । बारहवें गुणस्थान में तथा तेरहवें गणस्थान में मरण नहीं होता। चौदहवें गुणस्थान में सर्व श्रेष्ठ मुक्ति प्राप्त होती है अत: इसमें होने बाले मरण को पंडित पंडित मरण कहते हैं ।
प्रथम गुणस्थान में मरण करने वाले चारों गतियों में जा सकते हैं । सासादन वाले नरक गतिको छोड़कर अन्य तीन गति में जाते हैं । चतुर्थ गुणस्थान में मरणकर यदि पहले बद्धायुष्क है तो नरकगति में प्रथम नरक में हो जायेंगे आगे नहीं, तियंच तथा मनुष्य सम्बन्धी बद्धायुष्क है तो भोगभूमि के मनुष्य तियंच होंगे। देवों में वैमानिक देव होंगे । पंचम गणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान में मरण करने वाले जीव वैमानिक देव ही होते हैं । चौदहवें गणस्थान में तो परिनिर्वाण होता है ।
अर्थ-दर्शन आराधना, ज्ञान आराधना, चारित्र आराधना और तप आराधना इसप्रकार चार प्रकार की आराधना होती है. इनमें से प्रथम दर्शन आराधना का वर्णन करते हैं क्योंकि आराधना करने वालों को सर्व प्रथम इसीका माराधन करना होता है । दर्शन आराधना के तीन भेद हैं-उपशम सम्यग्दर्शन, क्षयोपशम सम्यग्दर्शन और क्षायिक सम्यग्दर्शन ।।३४।।
विशेषार्थ-जीवों को सर्वप्रथम उपशम सम्यक्त्व प्राप्त होता है, अनादि मिथ्यादृष्टि जीव, कालादि लब्धियों को प्राप्त होकर मिथ्यात्व प्रकृति और अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ इन पाँच मोहनीय कर्म प्रकृतियों का उपशम (दबाकर) करके उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करता है, यह अत्यन्त निर्मल होता है, और अन्तमु हत्तंकाल तक रहता है। उपशम सम्यक्त्व के अनन्तर क्षयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त होता है । उपशम सम्यक्त्व प्राप्ति में प्रथम क्षणमें ही मिथ्यात्व कर्म के तीन खण्ड किये जाते हैंमिथ्यात्व, सम्यरिमथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति । क्षयोपशम सम्यक्त्व में इन तीन प्रकृतियों में से मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व का तथा चार अनन्तानुबन्धी कषायों का