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________________ [ २४ ] संसार भावना के अन्तर्गत पंचपरावर्तन का कथन है । लोक भावना में अठारह नाते की कया, सुभोग राजा की कथा और सुदृष्टि सुनार की कथा है । शुक्लध्यान के कथन में उसके चार भेद और उनके स्वामी का प्रतिपादन किया है । ये धर्मध्यान और शुक्लध्यान ही श्रेष्ठ तप संयम आदि हैं इत्यादि ध्यान का माहात्म्य बतलाया है इसमें २०३ श्लोक हैं। (३८) लेश्या-लेश्या के छह भेदों का कथन करके किस लेश्या के साथ मरण करने पर कहां उत्पन्न होता है यह बताया है शुक्ल लेश्या के उत्कृष्ट अंश के साथ मरण करने वाले क्षपक मुनि की उत्कृष्ट आराधना होती है और पीत लेश्या के साथ मरण करने वाले के जघन्य पारा धना होती है । इसमें १८ श्लोक हैं। (३६) फल-सम्यग्दर्शन प्रादि चार आराधना सहित सन्यास करने वाले साधु के उत्कृष्ट आराधना पूर्वक सिद्ध पद प्राप्त होता है, मध्यम प्रारराधना बाले यदि शुक्ल लेल्या युक्त हैं तो अनुत्तर विमानों में अहमिन्द्र पद प्राप्त करते हैं । कोई लौकान्तिक देव होते हैं, कोई सोलह स्वर्गों में इन्द्र पद प्राप्त करते हैं । जघन्य आराधना करने वाले यथायोग्य सौधर्मादि स्वर्गों में देव होते हैं। जो समाधि का नियम लेकर भी वेदना प्रादि से विचलित होते हैं अथवा कांदी आदि खोटी भावना से संयुक्त हैं वे समाधि को विराधना कर देवदुर्गति में जन्म लेते हैं । इममें ३८ श्लोक हैं। आराधक अंग त्याग--क्षपक मुनि का समाधि मरण होने पर उस शरीर को यावत्य करने वाले धेर्यशाली मुनिगण नैऋत, दक्षिण या पश्चिम दिशा में ले जाकर मटबी में रख देते हैं । वह स्थान समभूमिरूप होना चाहिए रात्रि में समाधि होये तो रात भर जागरण करना होगा एवं क्षपक के शरीर में छेदन करना भी आवश्यक है, मृतक को ले जाने प्रादि की विधि मूल में पूर्ण रूप से देखना चाहिए । जघन्य मध्यम आदि नक्षत्र में समाधि होवे तो क्या करना यह भी बताया है । समाधि रूप महायज्ञ में जो सहयोगी हैं, यावृत्य करते हैं, यहां तक जो केवल दर्शन वन्दन भी करता है वह जीव महान् भाग्यशाली है, उसका भी समाधि पूर्वक मरण होता है इस प्रकार इस अधिकार के अन्त में निर्यापक प्रादि को विशेषता कही है। इसमें ४१ श्लोक हैं। प्रयोचार भक्तत्याग इंगिनी, प्रायोपगमनाधिकार प्रतुल बोर्णधारो महामुनिराज अकस्मात् मरण के कारण उपस्थित होने पर प्राहार स्याग कर प्रवीचार भक्त प्रत्याख्यान मरण को स्वीकार करते हैं। इसके तीन भेद हैं । इंगिनी मरण में पर के उपकार की अपेक्षा नहीं होती और प्रायोपगमन मरण में तो अपने और पर दोनों के उपकार, सेवा, वैयाबृत्य की अपेक्षा नहीं होती, इसमें सर्वथा शरीर चेष्टा मे रहित
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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