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________________ अनुशिष्टि महाधिकार [३५७ इन सबसे अतिरिक्त एक अध:कमंदोष है जो महादोष कहलाता है। इसमें कूटना, पीसना, रसोई करना, पानो भरना और बुहारी देना ऐसे पंचसूना नामके आरंभसे षट्कायिक जीवोंकी विराधना होनेसे यह दोष गृहस्थाश्रित है। इसके करने वाले साधु उस साधु पदमें नहीं माने जाते हैं । उद्गमके १६ भेद(१) औद्देशिक-साधु पाखंडी आदिके निमित्तसे बना हुआ आहार ग्रहण करना उद्देश दोष है। (२) अध्यधि-ग्राहारार्थ साधुओंको आते देखकर पकते हुए चावल आदिमें और अधिक मिला देना। (३) पूतिदोष-प्रासुक तथा अप्रासुकको मिश्र कर देता। (४) मिश्रदोष-असंयतोंके साथ साधुको आहार देना । (५) स्थापित-अपने घर में या अन्यत्र कहीं स्थापित किया हुआ भोजन देना । (६) बलिदोष-यक्ष देवता आदिके लिए बने हुएमें से अवशिष्टको देना । (७) प्रावर्तित-कालकी वृद्धि या हानि करके आहार देना। (6) प्राविष्करण-आहारार्थ साधुके आने पर खिड़की आदि खोलना या बर्तन मांजना आदि । (६) क्रोत-उसी समय वस्तु खरीदकर लाकर देना । (१०) प्रामृष्य-ऋण लेकर आहार देना । (११) परिवर्त-शालि आदि देकर बदले में अन्य धान्य लेकर आहार बनाना । (१२) अभिघट-पंक्तिबद्ध सात घरसे अतिरिक्त अन्य स्थानसे अन्नादि लाकर मुनिको देना। (१३) उदभिन्न-भाजनके ढक्कन आदिको खोलकर अर्थात सील, महर चपडी आदि हटाकर वस्तु निकालकर देना । (१४) मालारोहण-नसनीसे चढकर वस्तु लाकर देना। (१५) आछेद्य-राजा आदिके भयसे आहार देना । (१६) अनीशार्थ-अप्रधान दातारोंसे दिया हुआ माहार लेना ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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