SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 327
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ २८७ कुर्वन्ति दारुणां पीडामामिषाशनलालसाः । अपराध विनाप्येताः पुसा ज्याना इवाधमाः ॥६६७।। शंपेव चंचला नारी संध्येव क्षणरागिणी । छिद्रार्थिनां भुजंगीव शर्वरीव तमोमयी ॥६६८।। सिकतातृणकल्लोलरोमाणि भुवनत्रये । यावन्ति सन्ति तावन्ति मानसानि मृगौशाम् ॥६EET नगभूमिनभोऽम्भोधिसलिलक्षनभः स्वताम् । शक्यते परिमा कतुं स्त्री चित्तानां न सर्वथा ॥१०००॥ यथा समीरणोल्कांभोबुद् खुदाश्चिररोचिषः । एकत्र नावतिष्ठते तथैताश्चत्तवृत्तयः ।।१००१॥ - -. .. - - जिसप्रकार मांसके भोजनके इच्छुक व्यान बिना अपराधके भी जीवोंको दारुण पीड़ा देते हैं-मार देते हैं उसप्रकार ये अधम कामात स्त्रियां पुरुषोंको बिना अपराधके दारुण पीड़ा देती हैं ।।६६७।। यह नारो विद्युत्के समान चंचल, संध्याके समान क्षणभरके लिये रागी, छिद्रकी इच्छुक भुजंगीके समान और रात्रिके समान अंधकारमय होती है ।।६६ भावार्थ-विद्य त आकाश में चमककर नष्ट होती है वैसी नारीकी बद्धि चपल होती है । संध्याके समय आकाशमें लालिमा क्षणभर टिकती है पैसे नारोको प्रीति अल्पकालीन होती है, सपिणी जैसे छिद्र-बिलको चाहती है वैसे नारी पराये छिद्-दोष देखना चाहती है और जैसे रात्रि अंधकारमय होती है वैसे स्त्रियोंका मन वासना देष आदि रूप अंधकार युक्त हुआ करता है । तीन लोकमें जितने बालुके कण हैं, जितने तृणके तिनके हैं, समुद्र में जितनी लहरें हैं मनुष्योंके शरीरों पर जितने रोम हैं उतने मानस विकार मनके अभिप्राय या मनके भाव स्त्रियोंके हुआ करते हैं || REEIN संसारमें पर्वत, भूमि, नभ, सागरका जल, आकाशके नक्षत्र इन सबको गणना करना शक्य है किन्तु स्त्रियों के चित्तोंकी गणना करना सर्वथा शक्य नहीं है ।।१०००।। जैसे वायु, उलका, जलके बुलबुले, विद्य तु ये पदार्थ एक जगह टिकते नहीं वैसे ये स्त्रियाँ एक पुरुषसे अधिक समय तक प्रीति नहीं करती
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy