SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 465
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ४२५ अनुशिष्टि महाधिकार लोभस्तणेऽपि पापार्थमितरत्र किमुच्यते । मुकुटादिषरस्यापि निर्लोभस्य न पातकम् ॥१४६३।। सुध प्रलोभयगि मासंतुष्टय जायते । संतुष्टो लभते सौख्यं दरिद्रोऽपि निरंतरम् ।।१४६४॥ जायते सकला दोषा लोभिनो ग्रंथतापिनः । लोभी हिंसानृतस्तेयमेथनेषु प्रवर्तते ॥१४६५।। रामस्य जामदग्न्यस्य गृहीत्वा लब्धमानसः । कार्तधीयों नपः प्राप्तः सकुलः सबलः क्षयम् ॥१४६६॥ यदि तिनके में भो लोभ किया जाय तो वह लोभ पापका कारण है फिर अन्य विशिष्ट धन धान्यादिमें किये गये लोभ का तो क्या कहना ? वह लोभ तो पाप बंधकारक है ही । किन्तु जो व्यक्ति निर्लोभ है तो वह मुकुट कुडल आदिको धारण किये हुए भी है किन्तु उसको उस मुकुट आदि वस्तुके रहते हुए भो पाप बंध नहीं होता है ।।१४६३॥ असंतुष्ट पुरुषके तीन लोकका लाभ होने पर भी सुख नहीं होता है और संतुष्ट पुरुष दरिद्री होनेपर भी सतत् सुख को प्राप्त करता है ।।१४६४।। परिग्रह रूपी संताप युक्त लोभी मनुष्य के सकल दोष होते हैं। लोभी व्यक्ति हिंसा, झूठ, चोरी और मैथुन इन पापों में प्रवृत्त होता है ।।१४६५।। जमदग्नि नामके तापसोका पुत्र परशुराम था उसको कामधेनुको लुब्ध मन वाले कार्तवीर्य नामके राजाने हठात् ग्रहण किया था उससे वह राजा अपने पूरे वंशके साथ तथा सेनाके साथ नष्ट हो गया था ।।१४६६।। कार्तवीर्यकी कथाएक वन में जटाधारी तापसियोंका आश्रम था उसमें एक जमदग्नि नामका मिथ्या तापसी रेणुका स्त्रो एवं श्वेतराम और महेन्द्रराम नामके दो पुत्रोंके साथ रहता था । एक दिन उस वनमें हाथो पकड़नेको कार्तवीर्य नामका राजा आया । वह थककर विश्राम हेतु जमदग्निके कुटीके पास बैठा था। रेणुका ने उसको मिष्ठान्न द्वारा तृप्त किया आश्चर्य युक्त हो राजाने प्रश्न किया कि इतना श्रेष्ठ भोजन तुम लोगोंके पास
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy