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________________ भक्तप्रत्याख्यानमरण अर्ह आदि अधिकार भक्तस्यागः प्रशस्तेषु, मध्ये मृत्युषु वर्ण्यते । प्रादायद्यभवत्वेन, शेषवर्णनमग्रतः ॥६६॥ सवीचार मवीचारं, भक्तत्यागं विधाविदुः । शक्यश्चिरायुषामद्य, स्तत्रान्योऽन्यस्य कथ्यते ॥७०।। भक्तत्यागं सवीचारं, मृत्यु तत्र विषक्षणा। चत्वारिंशद्विबोध्यानि, सूत्राणीमानि धीमता ॥७१॥ अर्थ-प्रशस्तमरणों में सर्व प्रथम भक्त प्रत्याख्यान नामके प्रशस्तमरण का वर्णन करते हैं, क्योंकि वर्तमान कलिकाल में यह मरण संभव है। शेष दो मरण इंगिनी और प्रायोपगमनका वर्णन आगे करेंगे ॥६९।। अर्थ- भक्त प्रत्याख्यानमरण के दो भेद हैं सवीचार और अवीचार । जिसके प्रायु अभी दीर्घकालोन है उसके सवीचार भक्त प्रत्याख्यानमरण होता है और जिसकी आयु अत्यल्प है उसके अवीचार भक्त प्रत्याख्यानमरण होता है ।।७।। भावार्थ-यहाँ पर दीर्घ आयु और अल्प आयु का अर्थ यह है कि जिसके अकस्मात् आयु के नाशके कारण उपस्थित नहीं हुए हैं, जो बुद्धिपूर्वक शनैः शनै: आहारादिको कृश कर सकता है इतनी आयु अभी शेष है वह दोर्घायु है ऐसा अर्थ लगाना, तथा जिसके प्रायुके नाशके कारण उपस्थित हो गये हैं वह अल्पायु नामसे कहा गया है। अर्थ--सवीचार भक्त प्रत्याख्यानमरण की विवक्षा करने के इच्छुक बुद्धिमान पुरुषको ये चालीस सूत्र जानने चाहिये, अर्थात् भक्त प्रत्याख्यानमरण के वर्णन में चालीस सूत्राधिकार हैं अथवा चालीस प्रकरण हैं ।।७१।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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