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[ १८ ] (३१) क्षामण-क्षपक द्वारा समस्त संघ से क्षमा याचना। (३२) क्षपणा-क्षपक द्वारा कर्मों की निर्जरा होना । उसका कथन । (३३) अनुशिष्टि-निर्यापक प्राचार्य द्वारा क्षपक के लिए महायत आदि मूलगुण तथा उत्तर गुणों
का उपदेश देना । इसमें सबसे अधिक श्लोक हैं, यह सबसे बड़ा अधिकार है । (३४) सारणा-रत्नत्रय धर्म में क्षपक को प्रेरित करना । (३५) कवच-क्षपक को धर्मोपदेश द्वारा वैराग्यरूप दृढ़ कवच पहना देना इसमें धोर परीषह
विजयी सुकुमाल आदि मुनियों को कथायें हैं। (३६) समता-समता भाव का वर्णन । (३७) ध्यान-धर्मध्यान आदि का सविस्तार कथन । (३८) लेश्या-छह लेश्या का कथन एवं मरते समय कौन सी लेश्या होवे तो क्षपक किस गति में
जाता है इसका वर्णन। (३६) फल-चार पाराधनाओं को भाराधमा माया फल मिलता है।
आराधक के शरीर का त्याग--क्षपक की मृत्यु होने के बाद संघ का कर्तव्य क्या है क्षपक के
शव का क्या करना इत्यादि विषय का कथन । 1) अहं-जिस साधु को नेत्र दृष्टि अत्यल्प हो गयी है कर्ण श्रवण कार्य नहीं करते जंघाबल सर्वथा
घट गया है असाध्य रोग जो कि साधु पद में बाधक है, उपसर्ग आ गया है, दुभिक्ष हो गया है इत्यादि कारणों के उपस्थित होने पर उस साधु के समाधि ग्रहण का अवसर है, अतः ऐसे साधु समाधि के अर्ह-योग्य कहलाते हैं । इसमें ६ कारिकायें हैं । लिंग--मुनि लिंग मुख्यतया समाधि का साधक है जो गृहस्थ अन्त में समाधि करना चाहता है वह मुनिलिम धारण करके समाधिमरण करे । मुनिलिंग के चार चिह्न हैं-अचेलकत्व, या नान्य वस्त्र, शस्त्रअलंकार का त्याग । लोच-दाढी मूछ. शिर के केशों को हाथ से उखाड़ना । व्युत्सृष्ट देहता-शरीर के ममत्व का त्याग । प्रतिलेखन-मयूर के पखों की पोछी
धारण करना । इसमें २० कारिकायें हैं। ३) शिक्षा-जिनागम का सतत अभ्यास करना, इससे हेयोपादेय का हित अहित ज्ञान होता है,
परिणाम, संवर, प्रत्यन संवेग, रत्नत्रयस्थिरत्व, तपोभावना, परदेशकत्व । इस प्रकार इसमें
जिन शिक्षा का महत्व बतलाया है । इसमें १३ श्लोक हैं। (४) विनय -दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय, तपविनय, उपचारविनय इन पांचों विनयों
का कथन इसमें है । इसमें २४ श्लोक हैं। (५) समाधि- मनको समाहित शान्त स्थिर करना ममाधि है अथवा मनको वश करना समाधि