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________________ [-] रचना कलाप संविवरण १. सुभाषित रत्नसंदोह यह ग्रंथ आचार्यश्री ने सं० १०५० (ई० ९९४ ) में रचा । इस ग्रन्थ में ३२ परिच्छेदों द्वारा कोप, मान, माया, लोभ आदि विषयक सुभाषित लिखकर सुभाषित रत्न भाण्डागार को श्री वृद्धि हो को है । सम्भवतया यह आपकी प्रथम रचना है । इसके अध्ययन से इसके रचियता को वर्णन शंलो, कल्पना शक्ति और कवित्व गुण के प्रति पाठक को श्रद्धा होना स्वाभाविक है (संस्कृत भाषा पर उनका असाधारण अधिकार है और ललित पदों का चयन उनको विशेषता है । जिस विषय पर भी वे पच रचना करते हैं उस विषय का चित्र पाठक के सामने उपस्थित कर देते हैं। वे एक निर्मल सम्यक्त्व और चारित्र के धारक महामुनि होने के कारण जनता को सदुपदेशामृत का हो पान कराते हैं । तदनुसार सुभाषित रत्न सन्दोह के सुभाषित सचमुच में सुभाषित ही हैं । पूरा ग्रन्थ नाना प्रकार के सभाषितों से भरा हुआ है। ___ यह ग्रंथ अनेक बार प्रकाशित हुआ है ।' २. धर्म परीक्षा धर्म परीक्षा नामक जन ग्रन्थ बहुसंख्यक हैं । यथा-हरिषेण कृत धर्म परीक्षा [ अपभ्रंश ] अमितगति द्वितीय कृत धर्म परीक्षा (संस्कृत), वृत्तविलास कृत धर्म परीक्षा (कन्नड़), सौभाग्यसागर कृत धर्म परीक्षा ( संस्कृत }, पद्मसागर कृत धर्म परीक्षा (संस्कृत), मानविजयगणी कृत धर्म परीक्षा (संस्कृत), यशोविजय कृत धर्म परीक्षा (संस्कृत), जिनमण्डन कृत धर्म परीक्षा, पार्वकीति कृत धर्म परीक्षा, रामचन्द्र कृत धर्म परीक्षा आदि । इनमें से यहाँ अमिलगति द्वितीय लिखित धर्म परीक्षा के सम्बन्ध में कहा जाता है ग्रन्थ का विषय स्पष्टतया तीन भागों में विभक्त है। इसमें बीस परिच्छेद हैं । ग्रन्थ यह पुराणों में वणित अतिशयोक्ति पूर्ण प्रसंगत कथाओं और दृष्टान्तों की असंगति दिखलाकर उनकी ओर से पाठकों की रुचि को परिमाजित करने वाली कथा-प्रधान रचना है । उसके दो मुख्य पात्र हैं मनोवेग और पनवेग । दोंनों विद्याधर कुमार हैं । मनोवेग जैन धर्म का श्रद्धानी है। यह पवनवेग को भी श्रद्धानी बनाने के लिए पाटलीपुत्र ले जाता है । उस समय वहाँ ब्राह्मण धर्म का बहुत प्रचार था और ब्राह्मण विद्वान् शास्त्रार्थ के लिए तैयार रहते थे । दोनों बहमूल्य आभूषणों से वेष्ठित अवस्था में हो घसियारों का रूप धारण करके नगर में जाते हैं और ब्रह्मशाला में रखी हुई भेरी को बनाकर सिंहा. सन पर बैठ जाते हैं। ब्राह्मण विद्वान् किसी शास्त्रार्थी को प्राया जानकर एकत्र होते हैं और उनका विचित्ररूप देखकर आश्चर्यचकित रह जाते हैं। यह देखकर मनोवेग कहता है, १ सुभाषित रत्न सन्दोह प्रस्ता० पृ० ८ पं० कैलाशचन्द्र सि. शा० (जीवराज जैन ग्रन्थमाला) २ धर्म परीक्षा, प्रा. अमितगति दि० प्रस्ता० पृ० १५ ए० एन० उपाध्ये (जीवराज जैन ग्रन्थमाला)
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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