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मरणकण्डिका
बंधने महिला पाशः खड्गः पुंसां निकर्तने । छेक्ने निशितः कुतः पंकोऽगायो निमज्जने ॥१०२४।। नराणां भेदने शूलं वहने नगवाहिनी । भारणे दारुणो मृत्युमंलिनीकरणे मषी ॥१०२५॥ प्रनलो दहने पुंसां मुबगरश्चूर्णने परः । ज्वलंती पहने फंडूः महिनाको १२॥ उष्णश्चंद्रो रविः शोतो जायते गगनं घनम् । नादोषा प्रायशो रामा कुलपुश्यपि जातु चित् ।।१०२७।।
छंद रथोद्धतासपिणीव कुटिला बिभीषणा वैरिणीव बहुदोषकारिणी। मंडलीय मलिना नितंबिनो चाटुकर्म वितनोति यच्छतम् ।।१०२८॥ नारीम्यः पश्यतो दोषानेतानन्यांश्च सर्वथा । चित्तमुद्धिजते पुंसो राक्षसीभ्य इव स्फुटम् ॥१०२६॥
भेदन करने के लिये शूलके सदृश है, बहाकर ले जाने हेतु पर्वतकी नदी है, मारणमें दारुण मृत्युवत् है और मलिन करनेके लिये स्याही सदृश है ।।१०२५॥ पुरुषोंको जलाने के लिये मानो अग्नि ही है, चूर्ण कराने में मुद्गर समान है, वासना रूप अग्निको बढ़ाने के लिये पवन है और पुरुष का हृदय विदारण करने के लिये करोंत है ॥१०२६।। कदाचित चन्द्रमा उष्ण हो सकता है, सूर्य शीतल हो सकता है, गगन धनोभूत हो सकता है किंतु कलवंती स्त्रियां भी प्रायः दोष रहित नहीं देखो जाती हैं ।।१०२७॥ यह स्त्री सर्पिणीके समान कटिला, वैरीके समान भयंकर बहुत दोषोंको फरनेवाली होती है. मंडलोके समान मलिन यह नारी सैंकड़ों चाटुकर्मको करती रहती है अर्थात पूरुषको वश करने हेतु उसको चाटुकारी करती है ॥१०२८।। नारी द्वारा होनेवाले इन दोषोंको तथा अन्य भी बहुतसे दोषोंको देखकर पुरुषका चित्त सर्वथा उनसे उदविग्न हो जाता है अर्थात् ऐसे दोष युक्त नारियोंसे फिर पुरुष प्रेम नहीं करते उनसे डरते हैं जैसे राक्षसीसे अतिशय डर लगता है ।।१०२९।। स्त्री विषयक इन दोषोंको जानकर विद्वान पुरुष