SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 514
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७४ ] मरर कण्डिका गाढप्रहारविद्धोऽपि कोटिकाभिराकुलः । स्वार्थ चिलालपुत्रोऽगान्चालनीकृतविग्रहः ॥ १६३१॥ गुरुदत्त को लपेट दिया और आग लगा दी । उस घोर उपसर्गको धीर वीर मुनिने अत्यंत शांतभाव से सहा । वे शरीरको ममताका त्यागकर शुक्ल ध्यानमें लोन हो गये और ध्यान द्वारा केवलज्ञानको प्राप्त किया । I केवलज्ञान की पूजा के लिये चतुर्निकाय देव आये । कपिल ब्राह्मण को बहुत पश्चात्ताप हुआ । उसने गुरुदत्त केवलीसे पुनः पुनः क्षमा मांगी और उनकी दिव्य देशना द्वारा अपना कल्याण किया । देखो ! काष्टके समान शरीर जलते हुए भी गुरुदत्त मुनिराज श्रात्मामें लीन हुए और केवलज्ञान प्राप्त किया । कथा समाप्त बड़े बड़े कीडोंके द्वारा चलनीके समान होगया है शरीर जिनका ऐसे चिलातपुत्र नामा मुनिने दृढ़ शस्त्र प्रहारसे युक्त होते हुए भी अनाकुल रहकर प्राराधना रूप स्वार्थ अर्थात् मुक्ति को पायो थी ।।१६३१ ।। चिलातपुत्र मुनिको कथा राजगृह नगरी में राजा उपश्रेणिक राज्य करते थे । एक दिन वे घोड़े पर बैठकर घूमने गये । घोड़ा दुष्ट था सो उसने उन्हें एक भयानक वनमें छोड़ा ! उस वन का मालिक यमदण्ड नाम का भील था । उसके एक तिलकवती नामकी सुन्दर कन्या थो । राजा ने उसकी मांग की । "इसका पुत्र ही राज्य का अधिकारी होगा" इस शर्त के साथ भोल ने कन्या राजा को सौंप दी । उससे चिलात पुत्र नामका पुत्र उत्पन्न हुआ । राजा अपने वचनानुसार राज्यका भार उसे सौंपकर दीक्षित हो गये । राजा बनते ही चिलातपुत्र प्रजापर नाना प्रकारके अन्याय करने लगा । जब कुमार श्रेणिक ने यह बात सुनी तब उन्होने अपने पौरुषसे चिलातपुत्र को राज्यमे बहिष्कृत करके पिताका राज्य संभाला अर्थात वे मगध सम्राट बन गये । चिलात पुत्र मगवसे निकलकर किसी वनमें जाकर बस गया और आस-पास के ग्रामोंसे जबरदस्ती कर वसूल कर उनका मालिक बन बैठा । उसका भर्तृ मित्र नामका मित्र था । भर्तृ मित्रने अपने मामा रुद्रदत्तसे उनकी कन्या सुभद्रा चिलात पुत्रके लिए माँगो । रुद्रदत्तने इसे स्वीकार नहीं किया, त
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy