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________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ २७७ यथाभिद्यमाणासु स्वसमातसुतादिषु । दुःखं संपद्यते स्वस्य परस्यापि तथा न किम् ॥९६४।। इत्थमर्जयते परपोडाटोमा ! स्त्रीनपुसकवेवं च नीचगोत्रं दुरुत्तरम् ॥९६५।। भुज्यते यनिच्छतो क्लिश्यमानांगनावशा । तदेतस्याः पुरातन्याः परदाररतेः फलम् ॥६६६॥ योषावेषधरः कर्म कुर्वाणो न यवश्नुते । कांक्षितं शर्म तत्तस्य परवाररतेः फलम् ॥१७॥ नारीके साथ मैथुन सेवन करनेपर घोर पाप क्या नहीं होगा? होगा हो ॥९६३।। अपनो बहिन, माता और पुत्री आदिके साथ कोई दुराचार करे तो जैसे अपनेको दुःख होता है वैसे परायी नारी, बहिन आदिके साथ स्वयं दुराचार करनेपर परको दुःख क्या नहीं होगा ? अवश्य होगा ।।९६४।। इसप्रकार कामी पुरुष परायी नारीके सेवन से परको पीड़ा करने में उद्यमी हुआ पापका संचय करता है तथा स्त्रीवेद, नपुसकवेद, नीचगोत्र इन दुरुत्तर कर्मों का बंध करता है ।।६६५।। जो नहीं चाहती है ऐसी परायी नारी जो कि परपुरुषके वश में आनेसे अत्यंत दुःखी हो रही है उसको कोई कामुक हठात् भोगता है तो इस विषय में उस स्त्रीका पूर्व जन्मका पापका फल है जो पहले भव में परस्त्री सेवन से अजित किया गया था ।।६६६।। भावार्थ-किसो परायी नारोका कोई पुरुष जबरदस्ती उसे दुःखी करके सेवन करता है तो समझना चाहिये कि उक्त स्त्रीने पूर्व जन्ममें पुरुष अवस्था में परस्त्रीका जबरम सेवन किया था । वह पहले भवमें परनारीमें प्रेम करता था । स्त्रीका वेष धारनेवाला व्यक्ति अर्थात् जो नपुसक है और ऊपरसे स्त्रीका वेष पहनता है वह कामक्रीड़ाको करता हुआ भी इच्छित काम सुख नहीं पाता है, सो यह उसके पूर्व भवके परस्त्री सेवनका फल है ।।६६७।। भावार्थ-जो पूर्वभव में परस्त्री सेवन करता है वह आगामी भवमें नमक होता है, नपुसकको देखकर समझना चाहिये कि इसने पूर्वभवमें परनारीका सेवन किया था ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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