SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 562
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२२ 1 मरणकण्डिका कल्याण प्रापकोपायश्चितनोयो जिनागमे । शुभाशुभविकल्पानामपायः कर्मणां परम् ॥१७९७॥ एकानेकभवोपासपुण्यपापात्मकर्मणाम् । उदयोदोरणादीनि चितनीयानि धोमताम् ।।१७९८॥ ____ इन द्रव्य-तत्त्व प्रादिका पुनः पुनः विचार करना इनमें मनको एकाग्र करना आज्ञाविचय धर्म्यध्यान कहलाता है । अपायविचय धर्म्यध्यानका स्वरूप-~जिनागममें कल्याण, सुखकी प्राप्तिका जो उपाय बतलाया है उसका चितवन करना अथवा शुभ अशुभ कर्मों का अभाव कैसे हो, शुभ अशुभ कर्म इस जीवोंका कितना अपाय कर रहे हैं इत्यादि विचार करना अपायविचय धर्म्यध्यान है ।।१७६७।। विशेषार्थ-अभ्युदय और निःश्रेयस ऐसे दो प्रकारके कल्याण या सुख हैं । देव और मनुष्य संबधी सुख अभ्युदय सुख कहलाता है, मोक्षका सुख निःश्र यस सुख कहलाता है । इनका कारण रत्नत्रय है इत्यादि सुखके उपायका विचार करना अथवा शुभाशुभ कर्मोंसे होनेवाले अपायका विचार करना, मिथ्यात्व असंयम आदिसे इस जीव का कैसे-कैसे अपाय होता है इत्यादि विचार करना अपायविचय धर्म्यध्यान है । विपाकविचय घHध्यान का स्वरूपएक और भनेक भवों में संचित हुए पुण्य पापकर्मों की उदय उदीरणा, बंध, सत्व आदिका बुद्धिमानको विचार करना चाहिये । यह विचार विपाकविचय धर्म्यध्यान कहलाता है ॥१७९८॥ विशेषार्थ-जिनकर्मोंसे देवादिगतिके सुख प्राप्त होते हैं वे पुण्यकर्म हैं और जिन कर्मोसे नरकादि गतिके दुःख प्राप्त होते हैं वे पापकर्म हैं। इन कर्मोंकी दश अवस्थायें होती हैं-बंध, उदय, सत्त्व, संक्रमण, उदीरणा, उपशम, अपकर्षण, उत्कर्षण, निधत्ति और निकाचित । बंध-जीव प्रदेशों में नूतन कर्मका संबंध होना । उदय-कर्मका पथा समय फल देना । सत्त्व-कर्म बंधसे लेकर उदयमें आकर खिर जाने तक मौजूद रहना । संक्रमण-कर्मप्रकृतिका अन्य सजातोय कर्म प्रकृतिमें बदल जाना । उदीरणा
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy