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मरण कण्डिका
छंद-उपजातिविशोध्यसिद्धांतधिरोधिबद्ध ग्राह्या श्रुतज्ञः शिवकारिणीयम् । पलालमत्यस्य न कि पवित्रं गहातिसस्य जनतोपकारि ॥२२३३॥
छंद--वसंततिलकापाराधनाभगवती कथिता स्वशक्त्या चितामणिवितरितु बुधचिंतितानि । अह्नाय जन्मजलधि तरितु तरण्डं भव्यात्मनां गुणवती वदतां समाधि ॥२२३४॥
छंद-पृथ्वीकरोति वशवर्तिनी स्त्रिदशपूजिताः संपदो। निवेशयति शाश्वते यतिमसे पदे पायने । अनेकभवसंचितं हरति कल्मषं जन्मिनाम् । विदग्धमुखमंडनी सपदि सेविताराधना ॥२२३५॥
॥ मरणकण्डिका समाप्तं ॥ इस आराधना ग्रन्थमें मैंने मंद बुद्धि के कारण कुछ सिद्धांत के विरुद्ध लिखा हो उसको श्रुतके ज्ञाता पुरुष शुद्ध करके फिर इस कल्याणकारिणी मुक्ति प्रदायिनी श्राराधना ग्रन्थको ग्रहण करें--पढ़ें पढ़ावें, सुने सुनावें। ठीक हो है ! जगतमें क्या जनता पलालका त्यागकर उपकारी पवित्र ऐसे धान्यको ग्रहण नहीं करती है ? करतो हो है । अर्थात् जैसे घास तृण पलाल फुसको छोड़कर उपयोगो उपकारी श्रेष्ठ गेहं चावल आदि धान्यको हो लोग ग्रहण करते हैं वैसे इस ग्रंथमें अक्षर वाक्य अर्थ आदि सिद्धांत विरुद्ध हो उन्हें छोड़ कर अर्थात् उनका संशोधन करके परमार्थ भूत शब्दार्थको ग्रहण करना चाहिये ।।२२३३।।
___ इस भगवती आराधनाको मैंने अपनो शक्ति के अनुसार कहा है, यह आराधना बुधजन-मुनिजनोंको चितित वस्तु-मोक्षको देने के लिये चितामणि सदृश है। जन्मरूपी सागरको शीघ्र पार करने के लिये नौका सदृश है । यह गुणवतो आराधना भव्य जीवोंके लिये समाधिको प्रदान करें ।। २२३४।।
आराधना विद्वदजनोंके मुखके अलंकार स्वरूप है, भव्यजीवों द्वारा सेवित को गयी यह आराधना देवोंके द्वारा पूजित ऐसो मुक्तिको संपदाको वशमें करती है, शाश्वत पवित्र जनमत में प्रवेश करातो है और जीवोंक अनेक भवों में संचित किये हुए पापोंका नाश करती है ।।२२३५।।