________________
बालबालमरणाधिकार
[ २३
परोपदेशसम्पन्न, गृहीतमभिधीयते । निसर्गसंभवं प्राज, मिथ्यात्त्वमगहीतकम् ॥६१॥ अहिंसादिगुरणाः सर्वे, व्यर्यामिथ्यात्व भाविते । कट केऽलाबुनि क्षीरं, सफलं जायते कुतः ॥६२।। सर्वे दोषाय जायन्ते, गुणामिथ्यात्व दूषिताः । किमोषधानि निम्नति, सविषाणि न जीवितम् ।।६३।। निति संयमस्थोऽपि, न मिथ्याष्टिरश्नुते । जवनोऽप्यन्यतो यायी, किं स्वेष्टं स्थानमृच्छति ॥६४॥
अर्थ-कुगुरु आदि के उपदेश संगति आदि से जो अतत्त्व श्रद्धा रूप मिथ्यात्व होता है उसे गृहीत मिथ्यात्व कहते हैं । जो स्वभाव से ही मिथ्यात्वरूप भाव होता है उसे प्राज्ञ पुरुष अगृहीत मिथ्यात्व कहते हैं ।।६१।।
अर्थ-मिथ्यात्व युक्त जीव में पाये जाने वाले अहिंसा आदि सर्व निरर्थक हो जाते हैं, जिस प्रकार कड़वो तुम्बड़ी में रखा हुआ दूध कड़वा हो जाता है, उस दुध से कुछ लाभ नहीं होता ।।६२॥
अर्थ-अहिंसा आदि सर्वगुण मिथ्यात्व से दूषित हुए सबके सब दोष के लिये कारण हो जाते हैं । क्या विषयुक्त हुई औषधियाँ जीवन प्रदान कर सकतो हैं ? नहीं, वह तो उलटे जीवननाशक ही बनती हैं। इसीप्रकार मिथ्यात्व विष से युक्त अहिंसादिगुण गुण न रहकर दोष ही बन जाते हैं ।।६३।।
अर्थ-मिथ्यादृष्टि जीव संयम में स्थित होकर भी मोक्ष को प्राप्त नहीं कर पाता । क्या वेग से गमन करने वाला पथिक भी विपरीत दिशा में जा रहा है तो अपने इष्ट स्थान पर पहुँच सकता है ? अर्थात् जाना हिमालय में है और दक्षिण की ओर दौड़ रहा है वह पुरुष जमे अपने इष्ट हिमालय को प्राप्त नहीं कर सकता है, भले ही वह कितने ही वेग से गमन करे, वैसे ही मिथ्यात्वी कितना भी उच्च संयम क्यों न पाले किन्तु वह मुक्त नहीं हो सकता ।।६४।।