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बालपंडित मरणाधिकार
[ ६२७ दिग्देशानर्थवंडानां त्यामस्त्रधागुणवतम् । शिक्षाव्रतमिति प्राश्चतुर्भेदमुदाहृतम् ॥२१५३॥ भोगोपभोग संख्यानं सामायिफमखंडितम् । संविभागोऽतिथीनां च प्रोषधोपोषित व्रतम् ॥२१५४।। सहसोपस्थिते मृत्यौ महारोगे दुरुत्तरे ।। स्वबांधवरनुमातो याति सल्लेखनामसौ ॥२१५५॥ विधायालोचनां सम्यक् प्रतिपद्य च संस्तरम् । नियते यो गहस्थोऽपि तस्योक्त बालपण्डितं ॥२१५६॥ प्रोक्तो भक्तप्रतिज्ञायाःप्रक्रमो यः सविस्तरम् । प्रत्रापि स यथायोग्यं द्रष्टव्यः श्रुतपारगः ॥२१५७॥
छंद-रथोद्धतायेन देश यतिना निषेव्यते बालपंडितमृतिनिराकुला।
भोगसौख्यकमनीयतावधिः कल्पवासिविबुधः स जायते ॥२१५८।। -. -- ..-- --- लिखित चार भेदोंवाला कहा गया है ॥२१५३।। सामायिक शिक्षावत, प्रोषधोपवास शिक्षावत, भोगोपभोग संख्यान और अतिथि संविभाग । इन संपूर्ण बारह व्रतोंका धारक श्रावक अकस्मात् मृत्युके उपस्थित होनेपर या भयानक महारोग होनेपर अपने बंधुजनोंके द्वारा अनुज्ञा लेकर सल्लेखनाको धारण करता है ।।२१५४।।२१५५।।
सल्लेखनाका इच्छुक वह श्रावक आचार्य या मुनि आदिके समक्ष अपने व्रतोंमें लगे हुए दोषों की भली प्रकारसे आलोचना करता है फिर यथायोग्य चढाई आदि संस्तरको ग्रहण करता है, इसप्रकार नियमपूर्वक जो गृहस्थ मरण करता है उसके बालपंडित मरण कहा गया है ।।२१५६॥
श्रुतके पारगामी प्राचार्योंने भक्त प्रत्याख्यान मरण में जो विधि विस्तारपूर्वक कही थी वह यहां बालपंडित मरणमें भी यथायोग्य जाननी चाहिये जो देशवती श्रायक आदि निराकूल भावसे इस बाल पंडितमरणको ग्रहण करते हैं वे भोग, सौख्य प्रौर सुन्दरताको चरम सीमा हैं जिनके ऐसे कल्पवासी देव होते हैं । जो शुभमना-विशद्ध
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