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________________ पृष्ठ ८८-८९ ८६ ८६-१० ६०-१२० ६७-१०३ १०४-१०६ १०७-१०८ १०८-११७ ११७.१२० [ २८ ] विषम श्लोक भक्त प्र० के ४, अधिकारों में से १२ दिशा अधिकार २७८-२८२ तीर्थ प्रवृत्ति निमित्त नवीन प्राचार्य को शिक्षा-दिशा बोध देना २५२ भक्त प्र० के ४० अधिकार में से क्षमा अधिकार २८३-२८५ भक्त प्र० के ४० अधिकारों में से १४ अनुशिष्टि अधिकार २८६.३९८ समाधि के इच्छुक प्राचार्य द्वारा नूतन आचार्य को हृदयनाही शिक्षा देना, मार्जार के शब्द के समान पाचरण नहीं करना यावृत्य के १८ गुण ३१३-३३३ आयिका की संगति त्याज्य है पावस्थादि भ्रष्ट मुनियों का संसर्ग त्याज्य है ३४६-३४९ सज्जन दुर्जन संग आचार्य की शिक्षा को सुनकर सर्व संघ हर्ष से रोमांचित होता है उनकी विनय एवं स्तुति करता है। ३६७-३६६ भक्तप्र० के ४० अधिकारों में से १५वां परगण चर्या नामा अधिकार ३९९-४१५ आचार्य यदि स्व संघ में समाधि करे तो बाल आदि मुनियों पर ममत्व प्रादि परिणाम होते हैं अतः पराये संघ में जाना चाहिये ४०५ पर संघ में ममत्व प्रादि दोष नहीं पाते ४१२ भक्त प्र० के ४० अधिकारों में से १६या मार्गण अधिकार ४१६-४३२ समाधि का इच्छुक प्राचार्य पांच सौ आदि योजन तक निर्यापकाचार्य का अन्वेषण करें ५. सुस्थितादि अधिकार निर्यापक आचार्य के आठ गुणों के नाम दशस्थिति कल्प ४३३-४३८ व्यवहार शब्द का अर्थ यहां पर प्रायश्चित्त है उसके पांच भेद ४६५ अपरिस्रावोमुरण यदि प्राचार्य में न होवे तो महान् हानि ५०६-५१४ . भक्त प्र० के ४० अधिकारों में से १८वा उत्सर्पण अधिकार ५३.-५३५ निर्यापकाचार्य के निकट जाना १२०-१२५ १२२ १२५-१३१ १२५ १३२-२०१ १३२ १४२ १५४-१५६ १६०-१६२ ५३०
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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