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अनुशिष्टि महाधिकार
। ४२७ कषायेन्द्रिय दुष्टाश्वर्दोषदुर्गेषु पात्यते । त्यक्तनिर्वेदललिनेः पुरुषो बलयानपि ॥१४६६।। कषायेन्द्रियदुष्टाश्वई निर्वेदयंत्रितः दोषदुर्गेषु पात्यंते न सध्यान कशावशः ॥१४७०॥ विचित्रवेदनावष्टाः कषायाक्षभुजंगमः । नष्टध्यानसुखाः सद्यो मुचते वृत्तजीवितम् ।।१४७१॥ सध्यानमंत्रराग्य भेषजनिविधीकृताः । न साधोस्ते क्षमा हतु दोघं संयमजीविलम् ॥१४७२।। हृषीकमार्गणास्तोष्णाश्चितापुखाः स्मृतिस्यवाः । नरं लोगनु नाट विन्यति सुबहारिणः ॥१४७३॥
-- - ...-. स्थानोंमें गिरा देते हैं ।।१४६९।। किन्तु जिनको दृढ़ वैराग्यरूपी लगामसे नियंत्रित कर लिया है, जो सद् ध्यानरूपी चाबुक द्वारा वशमें कर लिये गये हैं ऐसे कषाय और इन्द्रियरूपो घोड़े दोष रूपी दुर्गम स्थानों में नहीं गिराते हैं ॥१४७०।।
जो पुरुष कषाय और इन्द्रिय रूपी सोके द्वारा काटे जानेसे विचित्र वेदना युक्त हैं वे ध्यानरूप सुखसे रहित हुए तत्काल ही चारित्र रूपी प्राणों को छोड़ देते हैं अर्थात् कषाय और इन्द्रियों के निमित्तसे चारित्रसे च्युत होते हैं ।।१४७१।। जिन कषाय. रूप सर्पोको सद्ध्यान शुभध्यान धर्मध्यान शुक्लध्यानरूपी मंत्र और वैराग्यरूपी औषधियोंके द्वारा बिष रहित कर दिया गया है, वे सर्प साधुके संयमरूपी दीर्घ जीवन को हरण करने में समर्थ नहीं होते हैं ।।१४७२॥
चितारूपी पुख-पंख जिनमें लगे हैं, स्मरण रूपो वेग से युक्त और आत्मीक सुखका हरण करनेवाले ऐसे इन्द्रिय रूपी बाण मनरूपी धनुष से छोड़े गये मनुष्यको वेध देते हैं-मनुष्यको वे बाण लग जाते हैं ।।१४७३।।
इसप्रकारके इन्द्रिय बाणोंको कैसे रोका जाय कसे नष्ट किया जाय ? ऐसा प्रश्न होनेपर कहते हैं