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________________ [१४] से दशम प्रतिमा के व्रत ग्रहण किए । तत्पश्चात् पूज्य प्रा. वीरसागरजी के संघ में वि० सं० २०१२ में ब० प्रभावतीधी ने क्षुल्लिका दीक्षा ली; आपका जिनमती नाम रखा गया सन् १९६१ ई० तदनुसार कार्तिक शुक्ला ४ वि० सं० २०१६ में सीकर (राज.) चातुर्मास के काल में पूज्य १०८ आ० शिवसागरजी महाराज से क्षु० जिनमतीजी ने स्त्री पर्याय के योग्य सर्वश्रेष्ठ सोपान आयिकावत' की कठोरतम प्रतिज्ञा अंगीकृत को । शनैः शनैः अपनी प्रखर बुद्धि से तथा पूज्य भा० ज्ञानमतीजी के प्रबल निमित्त से आप अनेक शास्त्रों की पारंगत हो गई। आप ज्ञानमती माताजी को “गर्भाधान क्रिया से न्यून माता" कहती हैं । आज प्राप न्याय, व्याकरण के ग्रन्थों को विदुषी के रूप में इस देश के मुमुक्षुओं को गौरवान्वित कर रही हैं। मापने प्रमेयकमलमार्तण्ड जैसे महान् दार्शनिक ग्रथ को २०३६ पृष्ठों में हिन्दो टीका प्रथम बार लिख कर; एक भाषानुदित दर्शनग्रन्थ सरल व सुलभ कर दिया है । इससे पूर्व इसका हिन्दी अनुवाद नहीं हुआ था। फिर सबसे बड़ी बात यह है कि परापेक्षी वृत्ति के रिना हो स्वयं ने निजी सस्कृत व न्याय के अधिकृत ज्ञान से यह कार्य सम्पन्न किया है। आज पुनः मरणकंडिका का अनुवाद देख कर हृदय प्रफुल्लित होता है । इस ग्रन्थ से साधु व श्रावक दोनों को ही नूनमेव पारलौकिक मार्गदर्शन प्राप्त होगा। पूज्य माताजी सस्वास्थ्य, रत्नत्रय की समीचीन व वर्धमान सम्पालना करती हुई चिरकाल जिएं, यही पुनीत भावना भाता हुमा पाठकों से निवेदन करता हूं कि जिन्हें, सदराचाररहित, मानलिप्सारिक्त, अत्यन्त सरल, सहज, श्रीमानों आदि से असम्पृक्त, एकान्त, लोक से नोरस एवं चिदानन्द में सरस जीवन जीने वाली प्रायिकोत्तर आयिका के दर्शन करने हों वे "जिनमति" के शरण की निज मति करें [ अर्थात् जिनमति के दर्शन अवश्य करें] सुभास्ते पन्थानः सन्तु । भद्र भूयात् । विनीतअवाहरलाल मोतीलाल जैन वकतावत, साड़िया बाजार, भीण्डर ( उदयपुर)
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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