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मरणकण्डिका संपद्यतां नोऽपि विनांतरायमाराधनषेति गणेन कार्यः । वपुर्विसर्गः क्षपकाधिवासे पृच्छा च तस्मिन्नधिदेवतानाम् ।।२०६६॥ उपवासमनध्यायं कुर्वन्तु स्थगणस्थिताः । अनध्यायं मृतेऽन्यस्मिन्नुपवासो विकल्प्यते ॥२०६७।।
उत्कृष्ट और मध्यम नक्षत्र में क्षपकका मरण हुआ है तो संघकी रक्षाके लिये प्रयत्नपूर्वक जिनेन्द्र देवको अर्चा आदि कराके शांति की जाती है ॥२०६५।।
विशेषार्थ-भगवती आराधनामें उत्कृष्ट तथा मध्यम नक्षत्र में क्षपकके मरण होनेपर जो क्रिया बतायी है वह इसप्रकार है-जहां क्षपकका शव क्षेपण करे उस शवके निकट घासका प्रतिबिंब स्थापित करके यह दूसरा अर्पण किया है यह चिरकाल तक यहांपर रहकर तप करे ऐसा जोरसे तीन बार उच्चारण करना चाहिये । उत्कृष्ट नक्षत्र में समाधि होवे तो घासके दो प्रतिबिंब रखे जाते हैं । यदि घास तृणके प्रतिबिंबका अभाव हो तो तंडल चूर्ण, भस्म, ईटोंका चूर्ण आदि से किसीको लेकर शवके निकट ऊपरी भागमें का प्रक्षर लिखना और नीचेके भागमें य अक्षर लिखना अर्थात् "काय" लिखना चाहिये ।
अथवा क्षपकका शव भूमिपर जहां स्थापित करना है उस स्थानपर पहले चावल आदिके चूर्णसे ऊपर के और नीचे त लिखकर पुन: उसपर शव स्थापित करना चाहिये।
क्षपकके शरीरका यथास्थान क्षेषण करने के अनंतर संघ द्वारा करणोय कार्य बताते हैं
समाधिके अनंतर शवकी क्रिया संपन्न होनेपर चार आराधनाओंकी प्राप्ति हमको भी बिना किसो विघ्न बाधाओंके होवे । इस भावनासे समस्त संघको कायोत्सर्ग करना चाहिये । तथा क्षपककी समाधि जिस स्थान पर हुई थी, उस स्थानके अधिष्ठाता देवतासे पृच्छा करनी चाहिये कि यहांपर संघ रहना चाहता है ।।२०६६।।
क्षपकका समाधिमरण होनेपर अपने संघके साधुजन उपवास करे एवं स्वाध्याय को नहीं करे । अन्य संघमें समाधिमरण हुआ है तो स्वाध्याय नहीं करे और उपवास भजनोय है, करे अथवा नहीं करे ॥२०६७।।