SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 395
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ ३५५ मयंपानापनो संबोधनी प्रच्छनी प्रत्याख्यानी याचनी प्रज्ञापनीच्छानुलोमा सशयिकि निरक्षरा चेति नवधा सत्यमृषाभाषा मंतव्या ॥१२५१।। संभावना सत्य, उपमा सत्य, व्यवहार सत्य और भाव सत्य ये दश प्रकारके सत्य होते हैं ॥१२५०।। यहाँपर इन दस प्रकारके वचनोंका लक्षण बताते हैं विशेषार्थ-देश देशमें जो प्रसिद्ध है ऐसे वचन देश सत्य कहलाते हैं जैसे भातको कहीं पर क्रूर, कहीं ओदन, कहीं चोखा कहा जाता है वह सब अपने देशको अपेक्षा सत्य है । राजाको देव कहना उसको रानीको देवी कहना यद्यपि ये मनुष्य हैं तो भी देव देवी कहना सम्मति सत्य है क्योंकि ये नाम सर्वलोक सम्मत हैं। प्रतिमामें यह चन्द्रप्रभ है इत्यादि स्थापना निक्षेपके अनुसार वचन कहना निक्षेप सत्य है । जिनदत्त आदि नाम रखना नाम सत्य है इसमें जाति गुण आदिको अपेक्षा नहीं रहतो । एक प्रमुख रूपको देखकर उस वस्तुको वैसा कहना रूप सत्य है जैसे बगुला सफेद है । अन्यको प्रपेक्षा लेकर बोलना जैसे यह व्यक्ति लंबा है यह छोटा कदवाला है इत्यादि | जिसकी संभावना मात्र हो वह संभावना सत्य है, जैसे यह बाहुसे समुद्र पार कर सकता है इत्यादि । उपमारूप वचन उपमा सत्य है जैसे चन्द्रमुखी कन्या, सागरप्रमाण काल इत्यादि ! वर्तमानमें पदार्थ में वैमा परिणमन नहीं भूतमें था या आगामी काल में होगा, उसको वर्तमानमें कहना व्यवहार सत्य है । पदार्थका सर्वांग रूपसे अवलोकन नहीं होनेपर भी संयत या संयतासंयत जनोंके अहिंसादिन्नतोंके परिपालनार्थ यह वस्तु प्रासुक है यह नहीं है इत्यादि रूप वचन कहना भावसत्य है। इन दश प्रकारके सस्थों के अतिरिक्त वचन असत्य है । दोनों मिले हुए उभयरूप सत्यमृषा है । इनमें अप्रशस्त वचन असत्य है और मैंने सब दे दिया। मैंने सब भोग लिया इत्यादि बचन उभयरूप है । इसप्रकार साधु के लिये ग्राह्यरूप सत्य वचन के भेद कहे । अब दूसरा असत्यमषा नामके ग्राह्य वचनको गद्य द्वारा बतलाते हैं--आज्ञापनी, संबोधनी, पच्छनी, प्रत्याख्यानी, याचनी, प्रज्ञापनी, इच्छानुलोमी, सांशयिको और निरक्षका । आज्ञाकारी भाषा आज्ञापनी है जैसे स्वाध्याय करो असंयमको छोड़ो इत्यादि । आवाज देकर पुकार कर बुलाना संबोधनो भाषा है । मैं अमुक कार्य करू क्या ? अापका स्वास्थ्य कैसा है इत्यादिरूप पृच्छनी भाषा है । मैं एक मास पर्यंत धी का त्याग करता हूं इत्यादि त्याग
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy