________________
[ २८५
अनूशिष्टि महाधिकार व्याघ्रादयो महादोषं कदाचित्तं न कुर्वते । लोकस्यबिघातिन्यो यं स्त्रियो वनमानसाः ॥६॥ सकश्मलाशया रामाः प्रावृषेण्या इयापगाः । स्तेनवत्स्वार्थतनिष्ठाः सर्वस्वहरणोद्यताः ॥१०॥ दारिद्रय विलसा व्याधि यावन्नाप्नोति मानवः । जायते ताववेवास्याः कुलपुल्या अपि प्रियः ॥६६॥ प्रसूनमिय निर्गधं यो भवति निधनः । म्लानमालेव वषिष्ठो रोगीक्षुरिव नीरसः ।।६६२।।
हैं जिस महादोषको कुटिल मनवाली इस लोक और परलोकका नाश करनेवाली स्त्रियां करती हैं, अर्थात् व्याघ्रादि केवल प्राण हो ले सकते हैं किन्तु कुटिल कुशीला स्त्रियां तो प्राणोंके साथ यश, सन्मान, धन आदिको भी हर लेती हैं, इन सबका नाश कर डालती हैं ॥९८८||६८६।।
जैसे वर्षाऋतुमें नदियां मैले जलोंसे युक्त होती हैं वैसे स्त्रियां मलिन आशयमन युक्त होती हैं, नदी में वर्षाकालमें कूड़ा कचरा मिट्टी आदि होनेसे उसका जल मलिन होता है और स्त्रियोंमें मोह ईर्ष्या असूयादि होने से उनका चित मलिन होता है । जैसे चोर अपने स्वार्थ, जो चोर कर्म हैं उनमें सदानिष्ठ होते हैं सर्वस्व हरण करनेमें लगे रहते हैं, वैसे स्त्रियां मधुर वचन कटाक्ष आदिसे पुरुषके सर्वस्व हरण करने में लगी रहती है ।।६६011
कुलवंती नारीको भो पति तब तक प्रिय लगता है जब तक उसके दरिद्रता नहीं आती या बुढ़ापा और रोगको बह पुरुष प्राप्त नहीं होता है । बुढ़ापा रोग दारिद्र आनेपर उच्चकुलोन स्त्रियां भी पतिको चाहना छोड़ देती है ।।९६१||
निर्धन पुरुष स्त्रीके लिये सुगंध रहित पुष्पके समान अच्छा नहीं लगता उसके लिये द्वेषका कारण हो जाता है । वृद्ध पुरुष मुरझाई हुई मालाके समान अप्रिय होता है और रोगो पुरुष जिसका रस निकाला गया है ऐसे नीरस इक्षु-गन्नेके समान अनिष्ट लगता है । अभिप्राय यह है कि घनयुक्त पुरुष तो स्त्रियोंको सुगधयुक्त पुष्पके समान