SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 403
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ३६३ अनुशिष्टि महाधिकार माभिः समितिभिर्योगी लोके षड्जीवसंकुले । दोषैहिंसादिभिर्नैव लिप्यते विहरम्नपि ॥१२५५॥ समितो मिलते मायामय घरनपि । स्निग्धं कमलिनीपत्रं सलिलैरिव वाः स्थितम् ॥१२५६।। बध्यते समितो नायः कायमध्ये भ्रमन्नपि । सन्नरो बिध्यते कुत्र शरवर्षे रणांगणे ॥१२५७॥ बालश्चरति यत्रैव तत्र परिहारवित् । बध्यते फल्मषैर्बाल इतरो मुच्यते पुनः ॥१२५८।। निकटस्थ प्रदेश आदिमें अथवा ऊसर भूमि चट्टान आदि जोव रहित प्रदेशमें शरीर मलका त्याग करते हैं । कदाचित रात्रिमें बाधा होवे तो दिन में बुद्धिमान स्थबिर साधु द्वारा देखे गये स्थान में जाकर वहां अपने उलटे हायसे भूमिका स्पर्श कर देखे कि कोई आगंतक जीव तो नहीं है ! इसप्रकार देखकर शरीर मलका त्याग करना प्रतिष्ठापना या उत्सर्ग समिति कहलाती है । इन पांचों समितियोंका भलीएकारसे पालन करनेवाला योगी षटजोव निकायपृथिवोकायिक आदि पंच स्थावर और एक त्रस इनके समुदायसे व्याप्त इस लोकमें विहार करता हुआ भी समिति के कारण हिंसा आदि दोषोंसे लिप्त नहीं होता है अर्थात् उसको पापका बंध नहीं होता है ।। १२५५।। समितियोंका प्रतिपालक मुनि जीवोंके मध्य में चलता हुपा भी पापोंसे लिप्त नहीं होता, जैसे चिकना कमल पत्र जलमें स्थित रहनेपर भी जलसे लिप्त नहीं होता है ॥१२५६॥ समितिसे युक्त मुनि षट्काय जीवों के मध्य में भ्रमण करता हुआ भी पापोंसे नहीं बंधता है । जैसे जिसने भलीप्रकार बाण विद्याका अभ्यास किया है एवं कवच आदिसे युक्त है तो बाणोंको वर्षा जहां हो रही है ऐसे रणांगणमें क्या बाणोंसे विद्ध होगा ? नहीं होगा ॥१२५७।। जहां जिस लोकमें बाल-अज्ञानो गमनागमन आदि क्रियायें करता है वहींपर जीवोंके परिहारको अर्थात् रक्षाको जाननेवाला ज्ञानी मुनि उक्त क्रियाओंको करता है,
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy